Thursday, June 24, 2010

सर्वश्रेष्ठ चैनल ने नहीं दिखाई 'श्रेष्ठता'

हमेशा सच दिखाने का ठीकरा फोड़ने वाला वो चैनल ,सच्चाई नहीं देख पा रहा था। सर्वश्रेष्ठ चैनल के लोग अपने इन्स्टीट्यूट में पढ़ने वाले बच्चों को किस मुंह से सिखाते होंगे कि रिपोर्टर को “BIASED” यानि एकपक्षीय (या पूर्वग्रसित) नहीं होना चाहिए। क्या 'सबसे तेज' होने का दम भरने वाला ये चैनल अपने छात्रों (और अपने रिपोर्टरों को) को ये सिखाता है कि अगर कोई रसूखदार या फिर अपना ही जानने वाला कोई शख्स लफड़े में फंस जाएं तो उसकी खबर मत दिखाओ...

"न्यूज चैनल पर एक विशेष खबर(स्टोरी) क्यों कवर की जाए...इसके अलग अलग क्राइटीरिया (मापदंड) होते हैं....मसलन इमोश्नल स्टोरी है या फिर खबर का विषय बहुत पावरफुल है... इसके तहत ही रिपोर्टर तय करता है कि खबर कवर करनी चाहिए या नहीं...। लेकिन टॉप मोस्ट न्यूज चैनल्स में प्रोफाइल पर भी बहुत ध्यान दिया जाता है। अगर पीड़ित परिवार या फिर आरोपी परिवार हाईप्रोफाइल है तो चैनल उस खबर को हाथों हाथ उठा लेते हैं। एक्सक्लूसिव खबर हो तो सोने पर सुहागा...। दिनभर एक मुहिम छेड़ दी जाती है। अक्सर न्यूज चैनल्स की मीटिंग में रिपोर्टर के मुंह से ये सुना जा सकता है “बहुत शानदार प्रोफाइल है सर”... खबर दिखा देंगे तो “हंगामा हो जाएगा” ....या फिर बॉस लोगों से ये सुना जा सकता है कि स्टोरी बहुत “लो-प्रोफाइल है...लीव इट…”
अगर किसी खबर में पीड़ित पक्ष बहुत कमजोर हो, लेकिन कानून पर उसको आशा हो, जबकि आरोपी पक्ष बहुत ही हाईप्रोफाइल हो, फिल्मी जगत के सबसे नामचीन परिवार से ताल्लुक रखता हो, उसके व्यापार की गिनती कभी अनिल अंबानी ग्रुप की तरह होती रही हो या फिर उसके अच्छे राजनीतिक संबंध हों तो ऐसे में क्या न्यूज चैनल और अखबारों को वो खबर ड्रॉप कर देनी चाहिए ? शायद नहीं। लेकिन देश के सर्वश्रेष्ठ चैनल के अलावा कई न्यूज चैनलों ने एक खबर में यही किया। न्यूज चैनल की बात अगर छोड़ दें तो नंबर 2 पर गिनती होने वाले अंग्रेजी अखबार (हिन्दुस्तान टाइम्स) ने भी यही किया। लेकिन बाद में उन्हें शायद इस बात का अहसास हुआ... तो उन्होंने खबर तो छापी लेकिन आरोपी के रसूख के चलते (शायद) उसका नाम स्टोरी से गायब कर दिया। रूचिका गिहरोत्रा, प्रियदर्शनी मट्टू, जेसिका लाल और बीएमड्बल्यू जैसी खबरों पर अगर मीडिया की मुहिम के चलते इंसाफ मिल सकता है तो दिल्ली के एक गरीब परिवार को क्यों मीडिया एकजुट होकर उन्हें इंसाफ नहीं दिला सकती ? अब आप सोच रहें होंगे कि ये खबर है कौन सी।
तो सुनिए दिलदहला देने वाली दास्तान है ड्राइवर जनेश्वर शर्मा की। वही जनेश्वर शर्मा जो पिछले 6 साल से दिल्ली के रसूखदार अरबपति अनिल नंदा की गाड़ी चलाता था। ये अनिल नंदा वही हैं, जिनकी रिश्तेदारी अमिताभ बच्चन के परिवार से है। ये वही अनिल नंदा है, जिनके पिता ने ना सिर्फ देश भर में बल्कि बाहर भी एस्कॉर्ट हॉस्पिटल एन्ड ग्रुप की नींव रखी। ये वही अनिल नंदा है जिनकी सालाना आय 200 करोड़ से ज्यादा है। देश विदेशों में इनके बिजनेस की तूती बोलती है। अब परिवार में बंटवारा हो गया है नहीं तो इनके परिवार की बराबरी एक वक्त में अंबानी परिवार से होती थी। लेकिन आजकल अनिल नंदा सुर्खियों में हैं। लेकिन अपने बिजनेस के लिए नहीं बल्कि ‘गे-गैंग’ के लिए कुछ चैनल की हेडलाइन्स बने हुए हैं। दरअसल ये संगीन आरोप उसी गरीब ड्राइवर जनेश्वर ने लगाया है जिसने कुछ ही दिनों पहले हॉस्पिटल में दम तोड़ दिया। जनेश्वर, अनिल नंदा के घर से लगभग 90 प्रतिशत जली हालत में हॉस्पिटल में एडमिट करवाया गया। लेकिन घरवालों की तमाम कोशिशों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका।
मरने से पहले जनेश्वर, एक हिन्दी न्यूज चैनल (बधाई का पात्र है आईबीएन-7) के अलावा अपने भाई को भी वीडियो पर दे गया एक सनसनीखेज बयान। वीडियो पर रिकॉर्ड किए गए ये बयान मकतूल के आखिरी बयान थे। कहते हैं ना कि मरने से पहले आदमी झूठ नहीं बोलता। इसका मतलब कोर्ट की नजर में भी जनेश्वर के वो बयान बहुत महत्वपूर्ण हैं। मरने से पहले जनेश्वर ने अनिल नंदा पर “यौनाचार” के गंभीर आरोप लगाए हैं। “कमजोर और जरूरतमंद लड़कों को उसके घर पर लाया जाता और फिर चाहते या ना चाहते हुए उन लड़को के साथ घिनौना कृत्य किया जाता ।” ड्राइवर जनेश्वर पर भी ये सब करने पर दबाव बनाया जाता...बात यही खत्म नहीं होती। बहुत हाईप्रोफाइल लोग भी इस गे-गैंग में शामिल थे। जनेश्वर के घरवालों के मुताबिक उसको अनिल नंदा के इस घिनौने काम का पता चल गया था... और उसी दिन से इसे मुंह बंद रखने की धमकी दी जाती थी।
जनेश्वर ने कुछ दिनों पहले एक चिट्ठी लिखकर अपने घरवालों को इस बात बात से आगाह किया था कि उसकी अगर किसी संदिग्ध परिस्थिति में मौत होती है तो उसका जिम्मेदार अनिल नंदा ही होगा। जनेश्वर को जिस चीज की आशंका थी उसके साथ हुआ भी वही। तीन लोगों ने पेट्रोल डालकर उसे जला दिया। हफ्ते भर वो मौत से जूझता रहा। पुलिस ने जनेश्वर के बयान के आधार पर तीन अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या के प्रयास का मामला दर्ज किया जिसे जनेश्वर की मौत के बाद में 302 यानि हत्या में तब्दील कर दिया।
अब बात आती है न्यूज चैनल और अखबारों की। शुरुआत में हिंदी के सिर्फ दो ही न्यूज चैनल और एक लीडिंग इग्लिश अखबार ने ही अनिल नंदा के खिलाफ खबर दिखाने की हिम्मत जुटाई। या यूं कहा जाए कि सिर्फ तीन ऑर्गनाइजेशन को इसके बारे में पता था। जिन्होंने स्टोरी को कवर करवाया और ऑन एयर किया। ऐसे भी न्यूज चैनल थे जिन्होंने खबर को जानते हुए भी अनदेखा कर दिया। अनदेखा इसलिए किया क्योंकि खबर अनिल नंदा से जुड़ी हुई थी। ये वही चैनल है जिसका मालिक एक बहुत बड़ा बिल्डर है। लेकिन जब न्यूज 24 से लेकर स्टार न्यूज और आईबीएन 7 तक ने ये खबर पीट डाली तो ‘डर-डर’ के उस बिल्डर के चैनल ने भी खबर एयर(चलाई) की। एक बिल्डर चैनल ने अपने मातहत कर्मचारियों (पत्रकार कहना पत्रकारिता की बेइज्जती होगी) को साफ हिदायत दे दी कि “ये खबर अपने चैनल पर बिल्कुल नहीं दिखनी चाहिए।” दरअसल, बिल्डर चैनल्स नहीं चाहते थे कि उनके बिरादरी के एक नामचीन शख्स का नाम खराब हो—अनिल नंदा का रियल स्टेट में भी एक बड़ा कारोबार है।

लेकिन सबसे ज्यादा शर्मनाक रहा 'सर्वश्रेष्ठ चैनल' का रवैया। उनके यहां खबर तो क्या एक टीकर (न्यूज चैनल के नीचे चलने वाले समाचारों की पट्टी) तक में ड्राइवर जनेश्वर की साथ हुई ना इंसाफी का जिक्र नहीं किया। लेकिन क्यों?

वो शायद इसलिए क्योंकि टीवी टुडे के मालिक की बहन (शेयर होल्डर) के पति कभी अनिल नंदा के पिता एच एल नंदा के एस्कॉर्ट हॉस्पिटल में एक बड़े ओहदे पर थे। अब सवाल ये है कि 'सर्वश्रेष्ठ चैनल' का ये रवैया क्या ठीक था ? हमेशा सच दिखाने का ठीकरा फोड़ने वाला वो चैनल क्या सच्चाई नहीं देख पा रहा था। सर्वश्रेष्ठ चैनल के लोग अपने इन्स्टीट्यूट में पढ़ने वाले बच्चों को किस मुंह से सिखाते होंगे कि रिपोर्टर को “BIASED” यानि एकपक्षीय (या पूर्वग्रसित) नहीं होना चाहिए। क्या 'सबसे तेज' माने जाना वाला ये चैनल छात्रों (और अपने रिपोर्टरों को) को ये सिखाता है कि अगर कोई रसूखदार या फिर अपना ही जानने वाला कोई शख्स लफड़े में फंस जाएं तो उसकी खबर मत दिखाओ।
सर्वश्रेष्ठ चैनल के अलावा अपनी ‘खबरों’ के लिए विश्वसनीय माने जाने वाले एक हिंदी न्यूज चैनल पर भी ये खबर नदारद थी। ये चैनल वही है जिसे ‘बुद्धिजीवियों का चैनल माना जाता है और टैग लाइन है, 'जुंबा पर सच'। खाक है सच्चाई, यहां तो खबर ही नहीं दिखाई गई।
अब एक हिंदी न्यूज पेपर की भी कहानी सुनिए। जिस दिन से कुछ चैनल्स ने जनेश्वर की आवाज उठाई है उसी दिन से वो न्यूज पेपर जनेश्वर की मौत को खुदकुशी करार देने में जुटा है। आखिर वो अखबार क्यों फैसला सुनाने में लगा हुआ है। क्या उस अखबार के क्राइम रिपोर्टर और संपादक ये नहीं समझ पा रहे कि अगर जनेश्वर ने खुदकुशी की है तो उसके पास कोई वजह भी होनी चाहिए। बिना किसी वजह के कोई इंसान क्यों खुदकुशी करेगा। दूसरी बात ये है कि अगर जनेश्वर को खुदकुशी करनी ही थी तो फिर वो अनिल नंदा के घर ही खुद को क्यों जलाएगा ? जबकि वारदात वाले दिन जनेश्वर तैयार होकर रोज की तरह अपने ड्यूटी टाइम पर अनिल नंदा के घर पंहुचा। जनेश्वर की मौत आत्महत्या है या फिर हत्या, इसी झोल में फंसी है दिल्ली पुलिस। पुलिस ने जनेश्वर के बयान के आधार पर हत्या का मामला दर्ज कर लिया है और तफ्तीश जारी है। लेकिन इस घटना ने एक बार फिर मीडिया का वो चेहरा दुनिया के सामने लाकर खड़ा कर दिया है जो लोकतंत्र और सभ्य समाज में कतई बर्दाश्त करने लायक नहीं है। आरोपी कितना भी रसूखदार क्यों ना हो, सच्चाई को सामने लाना ही प्रेस का सबसे पहला (और अहम) दायित्व है। अगर आप ऐसा नहीं करते तो ये पत्रकारिता का अपमान नहीं तो और क्या है ?
(ये लेख मैने मीडिया पोर्टल मीडियामंच के लिए लिखा था)

Wednesday, April 21, 2010

सर, प्लीज बाइट दे दीजिए...


अफसरों द्वारा की गई रिश्वतखोरी का स्टिंग अगर न्यूज चैनल पर चल सकता है तो खुद के रिपोर्टर का स्टिंग क्यों नहीं चल सकता। प्रबंधन उन्हें क्यों नहीं एक्सपोज करना चाहता। क्यों चुपचाप उसे चैनल से निकाल दिया जाता है या फिर पूरा मामला ही गुपचुप तरीके से खत्म कर दिया जाता है। यकीन करिए अगर चैनल पर खुद के ही रिपोर्टर के गलत काम को दिखाया जाए तो आम लोगों की चैनल के प्रति विश्वसनीयता ही बढे़गी।
आजकल अखबारों और न्यूज चैनल की सुर्खियां हैं आईपीएल और बस .... आईपीएल विवाद। शशि थरूर और ललित मोदी ने ट्विटर पर ट्विट क्या किया एक की गद्दी छिन चुकी है तो दूसरे की छिनने की कगार पर है। भई ताजा मामला ये है कि ललित मोदी के बाउंसर्स ने मुंबई के कुछ पत्रकारों की जमकर पिटाई कर दी। रिपोर्टर भी बॉलीवुड यानि मुंबई के थे तो हीरोगीरी क्यों ना दिखाते उनके हाथ में भी जो आया उससे ललित मोदी के बाउंसर्स को दे मारा।
लेकिन सवाल ये है कि क्या अब एक पत्रकार की ये औकात हो गई है कि एक बाइट (VERSION) लेने के लिए थप्पड़ सहना होगा। ये सिर्फ मुंबई की ही बात नहीं है राजधानी दिल्ली में भी पत्रकारों के साथ बदसलूकी के कई मामले सामने आए हैं। चाहे वो कोई पीड़ित हो, आरोपी हो, पुलिसवाले हों, नेता हो या फिर आम आदमी। कोई भी पत्रकारों की फजीहत करने से पीछे नहीं हटता। लग रहा है मानो लोकतंत्र का चौथा खंबा धराशाही होने वाला है। लेकिन ये स्थिति आई ही क्यों ... इसके लिए जिम्मेदार कौन ? अपनी इस खराब स्थिति के लिए तो सबसे ज्यादा जिम्मेदार पत्रकार ही है।
मीडिया में ऐसे पत्रकारों की भी जमात है जो पुलिस अधिकारियों के पैर छूते है...जब तक प्रेस-कॉन्फ्रेंस के लिए पुलिस अधिकारी अपनी कुर्सी पर बैठ ना जाए तब तक बैठते तक नहीं है, स्टैंडिग पोजीशन में ऐसे खड़े रहते हैं जैसे कि पुलिस अधिकारी के मातहत हों। कई पत्रकार (इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार) तो पुलिसवालों को ‘भैया’ या ‘दीदी’ शब्दों से भी नवाजने से नहीं चूकते। कुछ रिपोर्टर तो अपराधियों और पुलिसवालों के बीच मिडिएटर तक बनने से नहीं हिचकते। आप को लग रहा हो कि ये सब हरकतें दूर-दराज के शहरों में स्ट्रिंगर्स करते होंगे। वहां तो पुलिसवालों की जीहुजूरी तो जमकर चलती है—अगर उनकी जीहुजूरी नहीं करेंगे तो ‘खबरें कैसे बनाएंगे’। लेकिन, जरा दम साध कर बैठ जाईये, ये सबकुछ करते हैं राजधानी दिल्ली के रिपोर्टर्स—जहां पर सभी बड़े-बड़े न्यूज चैनल्स और अखबारों के हेड ऑफिस हैं।
अभी हाल ही में एक जाने-माने न्यूज चैनल ने खुलासा किया कि दिल्ली के एक गैंगस्टर की पार्टी में किस तरह कई पत्रकार नाच रहे थे। रिपोर्टर्स के अलावा दिल्ली पुलिस के भी कई बड़े अधिकारी मौजूद थे वहां । गैंगस्टर के खिलाफ दिल्ली के तमाम थानों में हत्या, हत्या की कोशिश, जमीन हड़पने के 100 से भी ज्यादा मामले दर्ज हैं। इतना ही नहीं कुछ रिपोर्टर्स पर गैंगस्टर को फरार करने में मदद करने का भी आरोप लगा। इसी के चलते कुछ पत्रकारों से दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने पूछताछ भी की।
एक नामी गैंगस्टर के साथ रिपोर्टर का नाचना कोई पहला ऐसा मामला नहीं हैं। इससे पहले भी करीब डेढ़ साल पहले मेरठ के एक बहुचर्चित ट्रिपल मर्डर केस में भी पत्रकारों पर आरोपी की तरफ से लाखों रूपए लेने का आरोप लगा था। हत्या के आरोपी को शरण दी गई थी कुछ रिपोर्टर्स द्वारा। हत्या का आरोपी मेरठ के एक नेता के परिवार से था। पहले तो कई दिन तक रिपोर्टर की मदद की वजह से पुलिसवाले आरोपी को नहीं पकड़ पाए...लेकिन मामला जब सियासी गलियारों तक पंहुचा तो दबाव के चलते उसे पकड़ा गया। लेकिन बताते हैं कि जबतक आरोपी को कोर्ट में नहीं पेश किया गया तबतक रिपोर्टर की गाड़ी साथ साथ चलती रही...टीवी रिपोर्टर की गाड़ी पीछा इसलिए कर रही थी कि कहीं पुलिस आरोपी का एनकाउंटर ना कर दे। जिन रिपोर्टर्स का नाम घूस लेने में आया वो देश के नामचीन चैनल्स में काम करते हैं।
कुछ ‘भुख्खड़’ किस्म के रिपोर्टर भी होते हैं जिनकों देखकर ऐसा लगता है, जैसे पुलिस के ही दाने-पानी पर जीते हों। कुछ तो पुलिसवालों की ऐसी चापलूसी में जुटे रहते हैं कि किसी पार्टी में पुलिसवालों की बीवी तक को खाना परोस परोस कर देते नजर आते हैं। कुछ ब्लैक-लिस्टेड रिपोर्टर भी हैं जो आम आदमियों के साथ साथ पुलिसवालों को भी ब्लैकमेल करने में कामयाब हो जाते हैं। कुछ रिपोर्टर त्यौहार या फिर नए साल पर पुलिसवालों के लिए फूलों का गुलदस्ता भी लेकर जाते हैं। क्या ये सब हरकतें आईपीएस अफसरों को समझ में नहीं आती होंगी। वो सब अच्छे से समझते हैं तभी तो टीवी और अखबार के पत्रकारों को कुछ समझते नहीं हैं। तभी तो एक बाइट के लिए रिपोर्टर को अपनी उंगली पर नचाते रहते हैं। कुछ पत्रकारों के चलते पत्रकारिता की पूरी कौम बदनाम होती है। कहते हैं ना एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है।
कुछ रिपोर्टर्स तो ऐसे होते हैं, जो अधिकारियों को पहले ही बता देते हैं कि फलां रिपोर्टस उनके खिलाफ क्या छापने (या दिखाने)वाले हैं। सर, आपके एंटी स्टोरी जा रही है, संभल कर रहना! ऐसी बातों से वैसे तो एक अच्छे रिपोर्टर को खास फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन हां, अधिकारी अपने खिलाफ छप रही स्टोरी को लेकर सजग हो जाता है और तैयारी कर लेता है कि रिपोर्टर को क्या बाईट (या वर्जन) देना ठीक रहेगा, या रिपोर्टर से कन्नी काटने में ही बेहतरी है। कुछ रिपोर्टर ऐसे भी होते हैं, जो अधिकारियों को मना कर देते हैं कि फलां रिपोर्टर को ‘एंटरटेन’ ही मत कीजिएगा।
चुनाव के दौरान भी स्ट्रिंगर्स से लेकर संपादक और मालिक पर पैसे लेकर खबर चलाने के आरोप लगते रहें हैं। कुछ न्यूज चैनल्स तो राजनीतिक दलों की कवरेज का रेट लिस्ट भी तैयार करवाते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती है। जो रिपोर्टर जितने राजनीतिक दलों के प्रचार लेकर आता उसे एक नियत कमीशन दिया जाता था। कुछ चालू किस्म के रिपोर्टर भी होते हैं जिन्होंने कमीशन से तो पैसे बनाए ही... राजनीतिक पार्टियों से भी तमाम तरह के फेवर ले लिए.... तमाम तरह के फेवर से मेरा मतलब समझ रहे हैं ना.... फ्लैट, गाड़ी इत्यादि-इत्यादि। क्या ये सब चैनलों के संपादक या मालिकों को पता नहीं होगा। अरे जनाब, चैनल में कौन किसके उठता-बैठता है, कहां किसके साथ जाता है ये सबतक अगर संपादक को पता होता है तो ये सब पता करना बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन उन

भ्रष्ट पत्रकारों के नाम पर संपादकों का चुप्पी साधना.... भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देना है तो और क्या है? शायद चुप्पी इसलिए साध कर रखते हैं क्योंकि कहीं ना कहीं वो पत्रकार अपने बॉस के किसी राज का राजदार जरूर होगा। यही हाल अखबारों का भी है

भ्रष्ट पत्रकारों के नाम पर संपादकों का चुप्पी साधना.... भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देना है तो और क्या है? शायद चुप्पी इसलिए साध कर रखते हैं क्योंकि कहीं ना कहीं वो पत्रकार अपने बॉस के किसी राज का राजदार जरूर होगा। यही हाल अखबारों का भी है... वहां पर पैसे लेकर खबरे छापी जाती हैं। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता अब एक व्यापार बन गया है।
कहने को तो पत्रकारिता का काम ईमानदारी, सच्चाई और पारदर्शिता से किया जाना चाहिए। लेकिन अगर चौकीदार ही चोरी करने लगे तो क्या होगा? अंजाम आपके सामने है अब रिपोर्टर कुटते पिटते रहते हैं। पत्रकारों के लिए लोग दलाल जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कल तक नेताओं और सफेदपोश लोगों का स्टिंग करने वाले रिपोर्टर का ही स्टिंग, आम लोग कर देते हैं। आमलोग भी ऐसे पत्रकारों के खिलाफ एकजुट और जागरूक हो गए है... ब्लैकमेल करने वाले पत्रकारों को आसानी से दबोच लेते है। लेकिन वही दिक्कत फिर से है कि अगर पत्रकार कोई नामचीन है तो बच निकलता है... लेकिन अगर छोटा मोटा है तो भाया जमकर धुलाई होती है। अफसरों द्वारा की गई रिश्वतखोरी का स्टिंग अगर न्यूज चैनल पर चल सकता है तो खुद के रिपोर्टर का स्टिंग क्यों नहीं चल सकता। प्रबंधन उन्हें क्यों नहीं एक्सपोज करना चाहता। क्यों चुपचाप उसे चैनल से निकाल दिया जाता है या फिर पूरा मामला ही गुपचुप तरीके से खत्म कर दिया है। यकीन करिए अगर चैनल पर खुद के ही रिपोर्टर के गलत काम को दिखाया जाए तो आम लोगों को चैनल के प्रति विश्वसनीयता बढ़ेगी। क्यों इस तरह का उदाहरण नहीं बनाता है मीडिया। पत्रकारिता को अपने लिए इस्तेमाल करने वाले हथियार की ईमेज क्यों नहीं धोई जा सकती। अगर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया संपत्ति का ब्यौरा दे सकते हैं तो रिपोर्टर, संपादक और चैनल के मालिको के संपत्ति का ब्यौरा क्यों ना लिया जाए।
दरअसल, अभी भी रिपोर्टर्स को ही ‘पत्रकार’ माना जाता है। अखबारी दिनों में भी रिपोर्टर ही पत्रकार कहलाता था। डेस्क पर काम करने वाले कर्मचारियों को पत्रकार कम समझा जाता था। टी.वी और न्यूज चैनल्स आने के बाद भी स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही है।
लेकिन टी.वी के आने के बाद से ‘इमेच्योर’ यानि नौसीखियों के रिपोर्टर बनने की तादाद में बड़ी तेजी से आई। ऐसे रिपोर्टर अक्सर ऐसा कहते हुए सुने जा सकते हैं—'आज की दिहाड़ी खत्म हुई', 'एक बाइट, दो वीओ की स्टोरी है', 'आईपीएल चल रहा है अब कुछ नहीं चलेगा', 'सर (नेता या अधिकारी को संबोधित करते हुए) आपकी बाइट के बिना स्टोरी ड्राप हो जाएगी', 'सर आपकी वजह से हमारा दाना-पानी चल रहा है।'
ऐसे में जरुरत है कि पत्रकार, खासतौर से रिपोर्टर (क्योंकि मीडिया का फेस अभी भी वही हैं) अपने आपको परिपक्व बनाएं। पुलिसवालों के कदमों में गिरने की जरूरत नहीं है बल्कि उनकी काली करतूतों को सामने लाने की जरूरत है। अरे ललित मोदी टीवी पर नहीं आना चाहते तो ना आएं... उनकी एक बाइट के लिए लड़ाई झगड़ा करने की क्या जरूरत है। हर कोई पत्रकारों से बोलने और ना बोलने के लिए आजाद है .. ललित मोदी के बारे में तो सब कुछ पता है... कलम में ताकत होती है... बिना उनके वर्जन के छापो। आखिर ललित मोदी के खिलाफ अखबारों और टीवी में पहले क्यों नहीं कुछ छपा... जबकि सबको पता है कि ये एक पूर्व महिला मुख्यमंत्री का सबसे खास आदमी है और तमाम जमीन हथियाने के मामले जयपुर कोर्ट में लंबित है। करीब दो साल पहले, मोदी साहब के खिलाफ दिल्ली की एक अदालत ने जमानती वारंट तक जारी कर दिए थे—मामला धोखाधड़ी से जुड़ा था। पहले तो किसी भी टीवी और अखबार वाले ने ये दिखाने की हिम्मत नहीं दिखाई। सभी जानते है कि आईपीएल मैच में जमकर सट्टेबाजी होती है... तो पहले क्यों नहीं इस मामले को लेकर ललित मोदी को घेरा गया।

Sunday, March 21, 2010

कसूरवार कौन ?

अगर कोई गलत खबर न्यूज चैनल पर चल जाए तो क्या हो सकता है? शायद आपका जवाब हो कि, गलत खबर चलने पर न्यूज चैनल पर मानहानि का केस किया जा सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति गरीब हो, असहाय हो, और उसके बाद न्यूज चैनल पर गलत खबर चलने के बाद आसपास के लोग उसे ‘बलात्कारी और वहशी’ जैसे शब्दों से उसे बुलाने लगें, अपने ऊपर लगे लांछन से घर के बाहर निकलने के काबिल ना रह जाए, ऐसी स्थिति में वो आदमी क्या करेगा... कभी सोचा है...जवाब बहुत मुश्किल है। राजधानी दिल्ली के एक पति पत्नी भी कुछ ऐसी ही दुविधा में थे और गलत खबर चलने का खामियाजा उन्होंने अपनी जान देकर चुकाया।



टेलीविजन मीडिया का स्वरूप बहुत बड़ा है। लोग भले ही न्यूज पेपर में छपी खबरें पढ़कर भूल जाएं लेकिन टीवी पर चली खबरें जल्दी ही दिमाग में बैठ जाती है। आम आदमी टीवी पर चली खबरों पर ज्यादा विश्वास कर लेता हैं। क्योंकि देखे सुने गए पर जल्दी यकीन होता है। इसलिए टीवी, आम लोगों को बहुत जल्दी प्रभावित कर लेता है--- कुछ ऐसा ही हमें टीवी पत्रकारिता की पढ़ाई के वक्त बताया गया था। ये पढ़ाई की बात रही लेकिन क्या टीवी पर खबर चलने का गलत प्रभाव भी उतनी ही जल्दी पड़ जाता है?
क्या किसी खबर के चलने से परिवार का आत्मसम्मान चकनाचूर हो सकता है।
जिस व्यक्ति को न्यूज चैनल आरोपी बता कर चला रही है वो क्या सच में आरोपी है?
क्या पीड़ित व्यक्ति ने रो रो कर जो रिपोर्टर को बताया वो क्या वाकई सच है?
कहीं पीड़ित व्यक्ति द्वारा खबर चलवाना एक साजिश तो नहीं है?
ये ऐसे सवाल है जिनपर गौर करना अक्सर रिपोर्टर भूल जाते हैं।
आज से करीब 4 साल पहले की बात है। उस दिन एक न्यूज चैनल की हेल्पलाइन पर 17-18 साल की एक लड़की ने फोन किया। लड़की फूट-फूट कर रो रही थी और अपनी आप-बीती बयां कर रही थी। लड़की ने बताया कि उसकी मां की मृत्यु हो चुकी थी लिहाजा उसके पिता ने पालन पोषण के लिए मौसी-मौसा के पास भेज दिया है। उसने बताया कि मौसी-मौसा ने उसे अपने घर में बंधक बना लिया है और अक्सर मौसा उसके साथ बलात्कार करता है। मौसा, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान में कार्यरत थे। खबर वाकई हिला देने वाली थी। लड़की के रूंदन से किसी का भी दिल दहलना लाजमी था।
चैनलों में कॉम्पीटीशन ही था कि हर दिन एक ना एक प्रोमो स्टोरी, रिपोर्टर को देनी ही होती थी। प्रोमो इसलिए ज्यादा जरूरी होता था क्योंकि

तीन बेहतरीन चैनल्स के क्राइम प्रोग्राम एक ही टाइम पर यानि रात के 11 बजे आते थे। क्राइम प्रोग्राम की टीआरपी अक्सर नंबर 1 रहती थी, लिहाजा तीनों चैनल्स के क्राइम प्रोग्राम्स में एक्सक्लूसिव करने की होड़ लगी रहती थी।

तीन बेहतरीन चैनल्स के क्राइम प्रोग्राम एक ही टाइम पर यानि रात के 11 बजे आते थे। क्राइम प्रोग्राम की टीआरपी अक्सर नंबर 1 रहती थी, लिहाजा तीनों चैनल्स के क्राइम प्रोग्राम्स में एक्सक्लूसिव करने की होड़ लगी रहती थी। ऑफिस को उस दिन की प्रोमो स्टोरी मिल चुकी थी क्योंकि लड़की अपने मौसा पर बलात्कार और बंधक बनाने जैसा संगीन आरोप लगा रही है... तो इससे बेहतर क्या होगा। फटाफट एक रिपोर्टर को लड़की के पास रवाना किया गया। खबर के चलने (एयर) का टारगेट उसी दिन का था। लिहाजा रिपोर्टर को असाइनमेंट डेस्क से जल्दी खबर कवर करने की बार बार इन्स्ट्रक्शन मिल रही थी या यूं कहा जाए कि रिपोर्टर पर हर 10 मिनट बाद फोन कर कर के दबाव बनाया जा रहा था। बीच बीच में असाइनमेंट साथ ही अच्छा शूट करने के लिए बोल रहा था... कि लड़की को ऐसे चलाना...वैसे चलाना... रोते हुए कटवेज बनाना, आंख पोछते हुए कटवेज बनाना, प्रोमो स्टोरी है ज्यादा शूट करना, बलात्कार की पीड़ित है इसलिए ऐसा शूट हो जिससे उसका चेहरा ना दिखे... मौसी मौसा को कैमरे पर पकड़ने की कोशिश करना, कुछ ‘ड्रामा’ हो जाए तो अच्छा है.... वगैरा वगैरा।
रिपोर्टर लड़की द्वारा बताए गए घर पर पंहुच चुका था। उस वक्त घर पर मौसी मौसा मौजूद नहीं थे। न्यूज चैनल्स की गाड़िया देखकर मौहल्ले में खबर की आग की तरह फैल चुकी थी। आस पास के लोग भी तमाशबीन बनकर लड़की के घर पर पहुंच गए थे। लड़की ने रिपोर्टर को रो-रो कर अपनी पूरी दास्तान बता डाली।
ये सारी बातें मोहल्लेवाले भी सुन रहे थे। अपने आरोपों को सिद्ध करने के लिए उस लड़की ने शरीर पर पिटाई के तमाम निशान दिखाए। कहते हैं ना कि लड़कियों के चार आंसू देखकर दिल पसीज जाता है ....यही उन मोहल्ले वालों के साथ हुआ। कुछ पता हो या ना वो भी लड़की की हां में हां मिलाने लगे।
कुछ को तो टीवी पर आने का मौका मिला था...लिहाजा रिपोर्टर को कैमरे में बाइट तक दे डाली कि मौसी मौसा लड़की को पीटते थे। हमारे घर तक आवाज आती थी। “वो (मौसा) तो रामलीला में रावण का रोल करता था और असल जिंदगी में भी रावण ही बन गया”—लड़की का मौसा दिल्ली की एक रामलीला में रावण का रोल करता था। लेकिन सिर्फ रोने से ही आरोप सिद्ध नहीं होते लिहाजा रिपोर्टर ने सूझबूझ दिखाते हुए लड़की से उसकी मेडिकल रिपोर्ट या फिर पुलिस कंपलेंट दिखाने के लिए कहा। लेकिन लड़की ने रोते हुए ये बोल डाला कि भैया मुझे तो निकलने नहीं देते हैं कैसे जाऊं पुलिस के पास? चूंकि बलात्कार जैसे गंभीर विषय की खबर बिना पुलिस से क्रासचैक किए नहीं चलाई जाती। इस बीच रिपोर्टर के कई सवालों में उलझते देख उस लड़की ने एक-दो चैनल के लोगों को और बुला लिया।

उन दिनो रिपोर्टर से बार बार कुछ ‘ड्रामा’ करने की बात की जाती थी—हालांकि अब ये ट्रैंड लगभग खत्म हो गया है—तो रिपोर्टर ने सोचा कि क्यों ना पुलिस के पास इस दुखियारी लडकी को लेकर चला जाए... इससे रेप की खबर भी चल जाएगी और उस क्राइम प्रोग्राम का और नाम हो जाएगा

उन दिनो रिपोर्टर से बार बार कुछ ‘ड्रामा’ करने की बात की जाती थी—हालांकि अब ये ट्रैंड लगभग खत्म हो गया है—तो रिपोर्टर ने सोचा कि क्यों ना पुलिस के पास इस दुखियारी लडकी को लेकर चला जाए... इससे रेप की खबर भी चल जाएगी और उस क्राइम प्रोग्राम का और नाम हो जाएगा कि वो अबला और गरीब लोगों के लिए भी इंसाफ का काम करता है। यानि जब मौसा गिरफ्तार होगा तो ‘खबर का इम्पैक्ट’ भी चलाया जाएगा। बस फिर क्या था मीडियावाले पीड़ित लड़की को लेकर थाने पहुंच गये। शिकायत दर्ज करवाने में मदद की। लेकिन मौसा के खिलाफ एफआईआर और उसकी गिरफ्तारी तभी हो सकती थी जब लड़की के मेडिकल टेस्ट में ये बात साफ हो जाती कि वाकई उसके साथ कोई जोर जबर्दस्ती की गई है।
अब रिपोर्टर के पास कवर करने के लिए बस एक पक्ष बचता था—आरोपी मौसा का ‘वर्जन’ लेना। लेकिन मौसा-मौसी ने यहां एक गलती कर डाली। जब रिपोर्टर अपने कैमरे सहित उनके घर पहुंचा तो उन्होंने कैमरे के सामने ही लड़ना शुरु कर दिया। रिपोर्टर पूछता रह गया कि उनपर लगे आरोप सहित है या गलत लेकिन वे कैमरे से बचते रहे। मौसा-मौसी के इस व्यवहार से रिपोर्टर को भी कहीं ना कहीं लगने लगा कि वे शायद ‘कसूरवार’ है और इसीलिए कैमरे के सामने नहीं आना चाहता—चोर की दाढ़ी में तिनका। लेकिन यहां रिपोर्टर ने भी शायद एक गलती कर दी थी। वो सीधा कैमरा ऑन करके उनके घर में पहुंच गया था, जिसकी वजह से मौसा-मौसी बौखला गए और रिपोर्टर पर बिदक गए। अगर रिपोर्टर बिना कैमरा ऑन किए मौसा-मौसी के पास पहुंचता और फिर उनका पक्ष सुनके बाद (उनकी) बाइट लेता तो शायद आज ये लेख लिखने की जरुरत ना पड़ती।
अब रिपोर्टर को खबर का पूरा ‘मसाला’ मिल चुका था। आउटपुट प्रोड्यूसर ने विजुअल देखकर स्क्रिप्टिंग मौसा के खिलाफ ठोक कर लिखी थी। शाम को 7 बजे से चैनल पर प्रोमों भी धड़ाधड़ चल रहा था। ‘कलयुगी मौसा का कलंक… आज वो लड़की रोएगी… मौसा का पाप... देखिए रात 11 बजे।’ और भी ना जाने क्या-क्या। चैनल पर बार-बार ये सब ‘टीज’ किया जा रहा था। रिपोर्टर को बॉस की तरफ से वाहवाही मिल रही थी। बॉस की तरफ से बाकी रिपोर्टर्स को ऐसी ही खबर करने की नसीहत भी दे दी गई थी। रिपोर्टर पूरे ऑफिस मे ‘सीना चौड़ा’ करके घूम रहा था। 10 लोगों को रात खबर देखने के लिए एसएमएस भी भेज चुका था। दूसरे चैनल्स में क्राइम रिपोर्टर्स की हालत खराब थी। वो बार-बार हमारे चैनल की इस स्टोरी के बारे में जानने की कोशिश कर रहे थे।
सर्वश्रेष्ठ चैनल के रिपोर्टर्स की जमकर क्लास लग रही थी। कुछ को तो ईमेल करके स्टोरी छूटने के लिए उत्तर(explanation) मांगा जा रहा था। खैर रात के 11 बजे वो खबर चली...सभी ने तारीफों के पुल बाँध दिए। बॉस ने भी अनाउंस कर दिया था कि अगले दिन इस खबर को और पीटेंगे। फॉलोअप होगा, महिला आयोग से बात की जाएगी। न्यूज चैनल में काम करने की विडम्बना तो देखिए कि एक बार खबर चलने के बाद ना किसी ने उस लड़की के बारे में सोचा और ना ही उसके मौसा के बारे में। उस दिन का कुंआ खुद चुका था और पानी पिया जा चुका था। लेकिन क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगले दिन सुबह क्या हुआ ?
मीडिया के लिए काला अध्याय थी वो सुबह। खबर मिली कि मौसा और मौसी ने खुदकुशी कर ली और उन्होंने एक लंबा चौड़ा सुसाइड नोट छोड़ा था।
जिसमें अपने आप को निर्दोष बताया था और अपनी पूरी वेदना प्रकट की थी। ऑफिस के बॉस और रिपोर्टर के पैरों तले जमीन खिसक गई। सबकी धड़कनें बढ़ी हुईं थीं कि कहीं अपनी मौत का जिम्मेदार वो मीडिया को ना ठहरा गया हो। जैसे तैसे प्रोग्राम का सुबह का रिपीट बुलेटिन रोका गया।
अब न्यूज चैनल में दो फाड़ हो चुका था यानि दो ग्रुप हो गए थे। एक ग्रुप वो जिन्होंने ये खबर चलाई थी और दूसरे ग्रुप में वो चैनल थें जिनके रिपोर्टर को पिछली रात ये खबर कवर ना करने के एवज में explanation देना पड़ा था। अंदर की बात ये भी थी, कि सर्वश्रेष्ठ चैनल के क्राइम प्रोग्राम की टीआरपी, गलती करने वाले पॉप्युलर प्रोग्राम से कम आती थी। तो अब सर्वश्रेष्ठ चैनल को उस प्रोग्राम को नीचा दिखाने का मौका मिल चुका था। सुबह से ही उस चैनल्स के रिपोर्टर्स ने दनादन लाइव-चैट शुरू कर दिया। शाम तक सर्वश्रेष्ठ चैनल, खबर की हकीकत दिखाता रहा। अब तक वो लड़की भी कटघरे में खड़ी हो चुकी थी। मोहल्लेवाले भी मरने वाले पति-पत्नी के पक्ष में बोलने लगे थे। अब ये बात निकल कर आने लगी थी ...कि मौसी मौसा जब घर में नहीं होते थे तो लड़की का एक दोस्त घर में आता था। मौसी मौसा को पता चला... इस बात को लेकर लड़की की पिटाई होती थी।
अब तक खबर बिल्कुल उल्टी हो चुकी थी। लड़की के शरीर पर पड़े निशान की भी हकीकत सामने आ चुकी थी। एक दिन पहले तक उछलने वाले उस रिपोर्टर का भी मुंह लटक चुका था। क्योंकि वाहवाही करने वाले बॉस ने अब उल्टा रूख अपना लिया था। वो रिपोर्टर की रिपोर्टिंग पर तमाम सवालिया निशान लगाकर चिल्ला चुके थे। रिपोर्टर, बॉस और वो प्रोड्यूसर जिसने कॉपी लिखी थी... किसी से नजरें नही मिला पा रहे थे। रिपोर्टर की आंखे लाल थी। इन सबका दोषी वो खुद को ही मान रहा था। ऑफिस वाले सब सर पीट रहे थे। क्योंकि उन्हें भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि एक खबर चलाने की जल्दबाजी दो लोगों की जान पर भारी पड़ जाएगी। हां ये बात जरुर है कि इस तरह की गलती कभी जानबूझ कर नहीं की जाती। लेकिन उस खबर के बाद से ही हर खबर के लिए (खास तौर से रेप से जुड़ी) रिपोर्टर से कई बार स्टोरी को लेकर सवाल-जवाब होने लगे। सवाल प्रोड्यूसर (स्क्रिप्ट राइटर) से किए जाने लगा। उन्हे दिशा-निर्देश दिया गया कि अगर किसी स्टोरी पर जरा भी संदेह हो तो तुंरत ‘गिरा’ दो। दरअसल, यहां केवल स्टोरी की विश्वसनीयता का सवाल नहीं था बल्कि रिपोर्टर और चैनल की विश्वसनीयता भी दांव पर लगी थी।
मौसी-मौसा की मौत ने इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को सबक दे दिया था। कभी भी क्रॉसचैक किए बिना खबर चलाने का प्रतिकूल भी प्रभाव पड़ सकता है। आखिर इतनी जल्दबाजी क्यों है भई, कि खबर की जल्दबाजी से लोगों की जान पर बन आए। वो टीवी रिपोर्टिंग की गलती का पहला बड़ा किस्सा था। लेकिन ये कहा जा सकता है कि उसके बाद से ही मीडिया का ‘डाउनफाल’ शुरु हो गया। आज से चार साल पहले मीडिया को हमेशा वाहवाही मिलती थी... लेकिन अब गालियां। टीवी न्यूज चैनल के लिए सिर्फ यही एक काला अध्याय नहीं है। इसके बाद एक न्यूज चैनल द्वारा चलाया गया फर्जी स्टिंग ऑपरेशन भी आया... और आरूषि मर्डर केस भी। न्यूज चैनल्स द्वारा हो रही गलतियों का ही अंजाम था कि सूचना प्रसारण मंत्रालय को नए नियम-कानून लाने पड़े। न्यूज चैनल्स ने अपनी एक संस्था गठित (एनबीए यानि न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन) कर दर्शकों को चैनल्स पर चलने वाले कंटेट के बारे में शिकायत दर्ज करने का एक फोरम दिया गया। (ये लेख मैंने मीडियामंचडॉटकॉम नाम की न्यूज पोर्टल के लिए 'मीडिया का काला अध्याय' नाम से लिखा था)

Friday, March 12, 2010

आज टीवी में आग लगा दूंगा !

...एक चैनल के क्राइम रिपोर्टर्स को स्कूप ढूंढने के लिए इतनी डांट पड़ी कि उन्होंने गुस्से में आकर बाबा के आश्रम को तहस नहस कर डाला। उन रिपोर्टर्स की शह पर स्थानीय लोगों ने बाबा के कमरे का दरवाजा तक तोड़ डाला। एक चैनल का रिपोर्टर तो इतना अधिक 'उत्तेजित' था कि बाबा की एक डायरी को ही अपने ऑफिस तक उठा लाया। उसका मानना था कि वो अपने चैनल पर बाबा की डायरी दिखाकर टीवी में 'आग' लगा डालेगा...


दिल्ली पुलिस ने एक अय्याश बाबा को क्या पकड़ा, रिपोर्टर्स के लिए चांदी ही चांदी। आरूषि-हेमराज हत्याकांड के बाद बाबा भीमानंद ही ऐसे हैं जिनकी कवरेज लगातार 10 दिनों से सबसे ज्यादा न्यूज चैनल्स में दिखाई जा रही है। काफी दिनों बाद यही एक केस आया है जिसमें एक बार फिर रिपोर्टर्स को शैरलक होम्स और जेम्सबांड बनकर अपनी प्रेडिक्शन करने (तुक्का मारने) का मौका मिला है। अब सेक्स रैकेट चलाने वाले बाबा राजीव रंजन द्विवेदी उर्फ शिवानंद उर्फ शिवा द्विवेदी उर्फ भीमानंद के बारे में रिपोर्टर्स ने खुलासे तो कर डाले लेकिन अब बाबा के सीसीटीवी कैमरे से कुछ रिपोर्टर्स को डर लग रहा है... क्यों ? तो बस आगे पढ़ते रहिए...
जिस दिन ढोंगी बाबा दिल्ली में गिरफ्तार हुआ उस दिन बजट का दिन था (26 फरवरी 2010)। लिहाजा अमूमन सभी चैनल्स बजट स्पेशल में जुटे हुए थे। एक ‘धार्मिक बाबा’ के गिरफ्तार होने की खबर को किसी ने खास तवज्जो नहीं दी। कुछ को पता नहीं चला और कुछ क्राइम रिपोर्टस को इस खबर को कवर करने के लिए कैमरा यूनिट तक नहीं मिली (सभी कैमरा यूनिट बजट कवरेज में जो झोंक रखी थी)। लेकिन शाम के 7 बजे के बुलेटिन में जैसे ही एक न्यूज चैनल ने बाबा की रहस्यमयी गुफा या यूं कहें बाबा के छिपने या फिर भागने के ठिकाने की एक्सक्लूसिव कवरेज दिखाई, तो मानों बाकी चैनल्स में हड़कंप मच गया।
उस खबर पर जाने वाले रिपोर्टर्स की जम कर क्लास लगाई गई। जो कवरेज के लिए नहीं पहुंचे थे उनकी तो और जमकर क्लास लगी। रिपोर्टर्स को अपनी गलती का अहसास हो रहा था लिहाजा एक के बाद एक न्यूज चैनल के रिपोर्टर्स का उसके गुफा में पहुंचने का तांता लग गया। गुफा वाकई हैरान कर देने वाली थी। सेक्स रैकेट चलाने वाले इस सरगना ने अपने काले धंधे पर पर्दा डालने के लिए भगवान की मूर्तियों का सहारा लिया था। तमाम देवी देवियों की मूर्तियों के पीछे एक छिपा हुआ दरवाजा था। अब भई अगर बाबा भीमानंद की नॉन स्टॉप कवरेज की जा रही है तो रिपोर्टस से उनके बॉस लोग ज्यादा से ज्यादा आउटपुट की भी डिमांड कर रहे थे।
पहले दिन बाबा के कमरे के अंदर कोई रिपोर्टर नहीं पहुंच पाया क्योंकि बाबा के कमरे पर ताला जड़ा हुआ था। कुछ चैनल्स पर तो बंद कमरा ही दिखाया गया लेकिन कुछ ने तो मंदिर के केयरटेकर के कमरे को ही बाबा का बेडरूम बना डाला। इतना ही नहीं एक न्यूज चैनल ने तो केयर टेकर के कमरे को बाबा के कमरा बता कर एक्सक्लूसिव बता डाला... दबा के चला बाबा का (फर्जी) कमरा।
मुंह में राम, बगल में लड़की वाला ये बाबा सितंबर 2010 में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए लड़कियों (कॉलगर्ल्स) की नई खेप तैयार करने में लगा हुआ था।
पुलिस सूत्रों के हिसाब से भीमानंद बाबा मॉडल, सीरियल्स और फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्रियां, एयर होस्टेस, कॉलेज गोइंग गर्ल्स की भर्ती में लगा हुआ था। पेइंग गेस्ट में रहने वाली लड़कियां उसकी गैंग की प्राथमिकता होती थीं। जैसा कि मैनें पहले ही बताया कि ढोंगी बाबा भीमानंद की गिरफ्तारी इसलिए बड़ी थी क्योंकि वो सबसे बड़ा सेक्स रैकेट चलाने वाला सरगना माना जा रहा है। दिल्ली में बड़े बड़े सेक्स रैकेट चलाने वाले सरगनाओं को दिल्ली पुलिस पहले पर्दाफाश कर चुकी है जैसे कंवलजीत, बॉबी छक्का, किरन मम्मी वगैरा वगैरा.... और इनकी शह पर काम संभालने वाली सोनू पंजाबन, अंकित धीर का भी खुलासा हो चुका है।
चैनल्स में इस खबर को प्राथमिकता दी जा रही थी। विजुअल मीडिया के लिए जो भी रिक्वायरमेंट होती है बाबा के विजुअल, बाबा के भजन गाने वाली सीडी, बाबा की बाइट,पुलिस की बाइट,कॉलगर्ल्स के विजुअल, रहस्यमयी गुफा के विजुअल वो सबकुछ इस स्टोरी में थी ही। लेकिन केवल रहस्यमयी गुफा कब तक चलेगी टीवी में लिहाजा कुछ रिपोर्टर्स ने बाबा का बाथरूम और टॉयलेट दिखाना शुरू कर दिया... कि बाबा इसी बाथरूम में नहाता था और... भगवान जाने टॉयलेट देखकर क्या बोला होगा उस रिपोर्टर ने। लेकिन माननी पड़ेगी उस चैनल की हिम्मत... ना सिर्फ बाबा का बाथरूम टॉयलेट दिखाया बल्कि शहद की शीशी दिखाकर ये तक कह डाला कि उस शीशी में ‘बाबा का शक्तिवर्धक तेल’ है।
इसी को कहते हैं गलाकाट रिपोर्टिंग। मीडिया ने एक के बाद एक बाबा के खुलासे किए। सीडी और फोटोग्राफ्स में बाबा के भक्त नेताओं के नाम का भी खुलासा किया। बाबा की डायरी में मिले पुलिसवालों के नाम का खुलासा किया... जैसे... लेकिन आखिर उस अंग्रेजी चैनल के रिपोर्टर का खुलासा क्यों नहीं किया जो बाबा की सीडी में भजन सुनते दिख रहा था। शायद उस रिपोर्टर का नाम इतना बड़ा ना हो या फिर वाकई बाबा अपने भाषाई जाल में अच्छे अच्छों को फंसाने में माहिर था चोहे वो नेता हो या रिपोर्टर या फिर आम आदमी।
सुनने में आया है कि एक चैनल के क्राइम रिपोर्टर्स को स्कूप(exclusive story) ढूंढने के लिए इतनी डांट पड़ी कि उन्होंने गुस्से में आकर बाबा के आश्रम को ही तहस नहस कर डाला। उन रिपोर्टर्स की शह पर स्थानीय लोगों ने बाबा के कमरे का दरवाजा तक तोड़ डाला। और अंदर रक्खी डायरियों को खंगालना शुरू कर दिया।

एक चैनल का रिपोर्टर तो इतना अधिक एक्सटाइटेड था कि बाबा की एक डायरी (जो कि एक केस प्रॉपर्टी है) को ही अपने ऑफिस तक उठा लाया। उसका मानना था कि वो अपने चैनल पर बाबा की डायरी दिखाकर टीवी में आग लगा डालेगा


एक चैनल का रिपोर्टर तो इतना अधिक एक्सटाइटेड था कि बाबा की एक डायरी (जो कि एक केस प्रॉपर्टी है) को ही अपने ऑफिस तक उठा लाया। उसका मानना था कि वो अपने चैनल पर बाबा की डायरी दिखाकर टीवी में आग लगा डालेगा(तहलका मचा देगा)। हालांकि बाद में उस चैनल के बॉस ने रिपोर्टर की जमकर डांट पिलाई तो वो वापस डायरी को वहीं रख आया। कुछ रिपोर्टर ने डायरी उठाई तो कुछ ने बाबा की फोटोग्राफ्स। अब जब रिपोर्टर ने ये सब कारस्तानी की है तो इलाके लोग क्यों चुप रहेंगे इलाके के लोगों ने भी बहती गंगा में हाथ धो डाला। बताते हैं कि बाबा के कमरे के कुछ सामान भी चोरी हो गए हैं। अब सबको बाबा के सीसीटीवी कैमरे में आ जाने का डर है। क्योंकि, बाबा के आश्रम में जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और रिपोर्टर्स की सारे हरकतें उसमें कैद हो सकती हैं।
लेकिन इसमें गलती किसकी है... रिपोर्टर्स की... या उनके बॉसेस की या फिर पुलिसवालों की? जाहिर सी बात है रिपोर्टर ने अपनी गरिमा खोई है। रिपोर्टर का काम होता है कवरेज करना... लेकिन किसी के सामान की क्षति पहुंचाए बिना। संवाददाताओं को बिलकुल ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिससे केस बिगड़े। अपनी तरफ से खबर नहीं बनाई जानी चाहिए।

लेकिन सबसे ज्यादा जवाबदेही पुलिस की बनती है। एक भी पुलिसवाला बाबा के आश्रम में क्यों नहीं तैनात किया गया? क्यों पुलिस ने केस प्रॉपर्टी यानि अहम डायरियों को अपनी तफ्तीश में शामिल नहीं किया? क्यों बाबा की रिमांड पुलिस ने पहले ही नहीं ली

लेकिन सबसे ज्यादा जवाबदेही पुलिस की बनती है। एक भी पुलिसवाला बाबा के आश्रम में क्यों नहीं तैनात किया गया? क्यों पुलिस ने केस प्रॉपर्टी यानि अहम डायरियों को अपनी तफ्तीश में शामिल नहीं किया? क्यों बाबा की रिमांड पुलिस ने पहले ही नहीं ली... मीडिया में इतनी खबर उछलने के बाद पुलिस को रिमांड लेने का ख्याल आया ! ये पुलिसवाले तब कहां थे जब बाबा का सेक्स रैकेट उनके इलाके में फलफूल रहा था?
लेकिन रिपोर्टर्स की जबर्दस्त कवरेज के चक्कर के आगे दिल्ली पुलिस को भी झुकना पड़ा। मजबूरन बाबा की 5 दिन का रिमांड लेनी पड़ी और अब ढोंगी बाबा भीमानंद पर मकोका (Maharashtra control of organized crime act) लगाना पड़ा। फर्जी बाबा भीमानंद करीब 13 सालों से दिल्ली के खानपुर इलाके में रहस्यमयी गुफा में रहता रहा। अपने पाप को अंजाम देता रहा। लेकिन पुलिस को कानों कान खबर नहीं लगी...ये बात हजम नहीं होती है। और वो भी तब जब बाबा कई बार पहले पुलिस के हत्थे चढ़ चुका है... पहला 1997 में दिल्ली के ही लाजपत नगर में मसाज पार्लर की आड़ में जिस्मफरोशी के आरोप में पकड़ा गया। फिर दूसरी बार 2003 में नोएडा में सेक्स रैकेट के धंधे के चक्कर में पकड़ा गया। बावजूद इसके, 2003 से लेकर 2010 तक क्या दिल्ली पुलिस को बाबा की काली करतूत का पता नहीं चला? पिछले 7 सालों में बाबा ने अपने इस सेक्स रैकेट के धंधे को एक संगठित और कॉर्पोरेट तरीके से चलाना शुरू कर दिया था। करोड़ों रूपयों का स्वामी बन बैठा। बाबा के सेक्स रैकेट के अलावा कई धंधे हैं...वो एक सिक्योरिटी एंजेसी का मालिक है, चित्रकूट में 200 बिस्तर वाले हॉस्पिटल बनाने का प्रोजेक्ट था, खानपुर के मंदिर और आश्रम का मालिक, प्रॉपर्टी के बिजनेस से भी पैसे कमाता था। और सुनने में आया है कि वो अमेरिका के लॉसवेगास के किसी एनजीओ से भी 250 करोड़ रूपए ऐंठने वाला था।
हकीकत ये भी है कि अगर न्यूज चैनल्स के रिपोर्टर्स ने अपना ग्राउंड वर्क नहीं किया होता तो शायद दिल्ली पुलिस के अधिकारियों तक को ये तक पता नहीं चलता कि राजीव रंजन द्विवेदी उर्फ शिवानंद उर्फ शिवा द्विवेदी उर्फ भीमानंद एक बहुत बड़ी मछली है। पुलिस ने प्रेस-कॉन्फ्रेंस करके ये इस धूर्त बाबा के बारे में बता तो दिया लेकिन अगर एक न्यूज चैनल बाबा की रहस्यमयी गुफा में सबसे पहले ना पंहुचता तो शायद पुलिस उसके ठिकाने पर कभी नहीं जाती।

Sunday, February 21, 2010

मीडिया के गुंडे !


...अंकल के साथ हो रही धक्का-मुक्की और गालियों की बौछार सुनते ही आंटी घर से बाहर निकली तो एक रिपोर्टर ने उन्हें ऐसा धक्का मारा कि दीवार में जाकर वो टकरा गई। अंकल-आंटी ने रिपोर्टर्स को गुंडा समझा और पुलिस को बुला लिया। बाहर खीजते रिपोर्टर्स को जब कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने ओबी (लाइव के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वैन) के उस तार को ही काट डाला, जिससे उस चैनल पर लाइव चल रहा था...
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से एक खबर आई कि आरूषि-हेमराज हत्याकांड की रिपोर्टिग से मीडिया को सबक लेना चाहिए। लेकिन क्या क्राइम रिपोर्टर या फिर न्यूज चैनल के लोग मानेंगे? बहस बहुत लंबी है और तकरीबन डेढ़ साल से चली आ रही है। जबसे 16 मई 2008 को आरूषि तलवार का बेरहमी से कत्ल किया गया था और अगले दिन सुबह शक किए जाने वाले नौकर हेमराज की भी लाश एल-32, जलवायु विहार, नोएडा से मिली थी। सभी न्यूज चैनल और अखबारवालों ने अपने अपने तरह से कयास लगाए।
न्यूज चैनल द्वारा हायर किए गए प्राइवेट जासूसों और फॉरेन्सिक एक्सपर्ट ने भी तफ्तीश में कोई कोर कसर नही छोड़ी। लेकिन आरूषि-हेमराज की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को छोड़कर शायद ही किसी को पता हो कि आरूषि का घर यानि एल -32 एक 'पिकनिक स्पॉट' बन चुका था। कई रिपोर्टर्स और चैनल के बॉस वहां केवल घूमने के लिए पहुंचते थे। लोकतंत्र का चौथा खंबा कहलाने वाले पत्रकारिता की असंवेदनशीलता कई बार साफ झलक रही थी।

नोट-
1. ये लेख सत्य घटनाओं पर आधारित है।

2. कोई भी पात्र काल्पनिक नहीं है।

3. गालियों की जगह बीप बीप का इस्तेमाल किया गया है।


तारीख थी 16 मई 2008… सुबह करीब साढ़े 8 बजे थे। आरूषि की हत्या की खबर मिलते ही लगभग सारे न्यूज चैनल के रिपोर्टर और स्ट्रिंगर्स एल-32 जलवायु विहार पंहुच चुके थे। तत्कालीन एसपी बहुत जल्दी नतीजे पर पंहुच गए और नौकर हेमराज, जो कि वारदात वाली सुबह से गायब था, उसके ऊपर ईनाम घोषित करके उसे ही कातिल करार दे चुके थे। आरूषि की लाश पोस्टमॉर्टम के लिए पंहुच चुकी थी। पिता राजेश तलवार और नूपुर तलवार स्तब्ध थे। आंखो में आंसू तो नहीं था लेकिन उन्हें देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि उनके समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
यही से मीडिया का तुक्का लगाना शुरू हुआ। चूंकि एसपी ने बाइट में ये कह दिया था कि तलवार के मकान में लूटपाट नहीं हुई थी लिहाजा लाइव चैट करने वाले रिपोर्टर्स अंदाजा लगा रहे थे कि क्या आरूषि के साथ बलात्कार हुआ... कही घर के नौकर ने मालिक से किसी बात का बदला लेने के लिए तो मासूम बच्ची की हत्या नहीं कर दी है। छेडछाड़ हुई या वो ऐसा कौन सा राज जानती थी जिसकी वजह से उसे रास्ते से हटाने के लिए हेमराज ने कत्ल कर डाला ... वगैरा-वगैरा।

सीन नंबर 1- पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से पहले ही बलात्कार का दावा
उस वक्त मैं मौका ए वारदात पर नहीं थी बल्कि ये सब टीवी पर देख रही थी। टीवी पर इसलिए क्योकिं पिछली रात (यानि 15 मई 2008) को ही मैं जयपुर ब्लास्ट कवर करके लौटी थी। बाहर की कवरेज करके लौटी थी और जयपुर ब्लास्ट की अच्छी कवरेज करने की वजह से बास से तारीफ भी मिल चुकी थी... लिहाजा मेरा पूरा मूड बन गया था कि अब तो पूरे दो दिन छुट्टी मारूंगी। ये सब सोच ही रही थी कि फोन आ गया। कॉल असाइन्मेंट से था। हैलो भी नहीं बोल पाई थी कि उधर से आवाज आई...बॉस ने पूछा है कि आरूषि के साथ बलात्कार हुआ है या नहीं पता करो।
मैने सोचा, अजीब आदमी हैं... अभी लाश पोस्टमॉर्टम के लिए गई ही है। जबतक पीएम नहीं हो जाता, कोई नहीं बता सकता। “नहीं नहीं बॉस बहुत गुस्से में हैं एक तो ब्रेकिंग देर से हुई है... नलिनी पता लगा के बताओ... जल्दी।”
गुस्सा तो बहुत आया लेकिन फिर भी मैने तत्कालीन एसएसपी से बात की। उन्होनें बलात्कार की बात से साफ इंकार कर दिया। आरूषि की लाश पर लगी चोटों के बारे में कहा कि अक्सर अपने को बचाव करते वक्त ऐसी चोटें लग जाती है।
मैने ऑफिस में एसएसपी का वर्जन बता दिया। लेकिन असाइनमेंट और बॉस लोगों को यही लगता रहा कि दूसरे चैनल सही चला रहे हैं। लिहाजा ब्रेकिगं में आरूषि के बलात्कार की आशंका ही चली। मैं उस वक्त और हैरान हो गई जब मैने एक सहयोगी का फोनों सुना। ऐसा लग रहा था कि आरूषि का पोस्टमॉर्टम करने वाला डॉक्टर वही हो। अपने फोनों में उन्होने आरूषि के अंदरूनी और बाहरी दोनों ही चोटों के बारे में खुलासा कर डाला था। बताओ पोस्टमॉर्टम अभी हो ही रहा है... बलात्कार की आशंका।

सीन 2- अरे भाई दीपक चौरसिया स्पॉट पर हैं
अगले दिन (17 मई) सुबह ही पता चल गया कि आरूषि का हत्यारा समझे जाने वाले हेमराज की लाश भी पुलिस ने बरामद कर ली है। मानों चैनल में भूकंप आ गया। खबर लगातार बड़ी हो रही थी...मुझे भी छुट्टी कैंसिल करके आफिस पंहुचना पड़ा। चाहे जरूरत हो या ना हो हर चैनल के 2-3 रिपोर्टर्स (बाद के दिनों में ये संख्या 5-6 तक पहुंच गई थी) एक साथ जलवायु विहार पंहुच चुके थे। सब के सब केस के स्कूप ढूंढ रहे थे।
तभी न्यूज चैनल की जानी मानी शख्सियत दीपक चौरसिया स्पॉट पर नजर आए। अगर ब्लास्ट को छोड़ दिया जाए तो काफी सालों बाद दीपक जी को एक क्राइम की खबर पर देखा जा रहा था। अब बाकी के रिपोर्टर्स की हालत खराब। एक ने फटाफट ऑफिस में फोन लगाया.... “अरे भाई किसी और धुरंधर रिपोर्टर को भेजो, मेरे से तो नहीं संभल रहा है, कितना कुछ है करने को ... पता है दीपक चौरसिया खुद है... (बीप बीप) कहीं कुछ गड़बड़ हो गया तो सब हमारे माथे पर फूटेगा। थोड़ी ही देर में एक दूसरे चैनल के एक्जीक्यूटिव एडिटर नजर आने लगे। धीरे-धीरे करके सभी चैनल्स के सर्वेसर्वा जलवायु विहार ‘टहलने’ के लिये पहुंचने लगे। आनन फानन में आरूषि के माता पिता अगले ही दिन आरूषि का अस्थि-विसर्जन करने हरिद्वार पंहुच गए... ये बात किसी के गले नही उतर रही थी। लिहाजा इस बात पर तो कयास लगाए ही जा रहे थे कि क्यों तलवार परिवार ने इतनी जल्दबाजी की। अबतक पुलिस ने आरूषि की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट का खुलासा कर दिया था और बात साफ साफ बता दी थी आरूषि के साथ कोई बलात्कार जैसी बात नहीं है और आरूषि की हत्या धारदार हथियार से देर रात को की गई है।
तमाम चैनल के रिपोर्टर्स गुटखा खाने और सिगरेट पीने में गप्पबाजी ही कर रहे थे कि एक जाने माने सीनियर क्राइम रिपोर्टर ने आरूषि के घर से छत तक की “17 सीढियों” को भी गिन डाला। एक वॉकथ्रू के जरिए पुलिसिया तफ्तीश पर भी सवालिया निशान लगा डाले। बस फिर क्या था जैसे ही वो वॉकथ्रू चला, सब चैनलों में हंगामा हो गया। अधिकतर रिपोर्टर सीढ़ी पर नजर आ रहे थे... धक्का मुक्की... गाली गलौच के बीच लगभग सारे चैनल के लोगों ने एक एक वॉकथ्रू किया।

सीन नंबर 3- बुजुर्गों में दहशत
जैसा कि मैने आपको पहले बताया कि बड़ी खबर होने के नाते एक चैनल के 5-6 रिपोर्टर जलवायु विहार में रहते थे। यानि 100 से ज्यादा रिपोर्टर और कैमरामैन मौका ए वारदात पर होते थे। अब चैनल के बॉस लोगों का भी आना शुरू हो चुका था। सबसे पहले एक हिंदी न्यूज चैनल के एडिटर स्पॉट पर पंहुचे। उन्होंने अपनी तऱह से तफ्तीश शुरू की। लेकिन उनके सफेद बाल देखकर एक महिला रिपोर्टर को धोखा हो गया और वो उनकी ही बाइट लेने पहुंच गई कि अंकल इलाके में दोहरी हत्या होने से आप बुजुर्गों में कितनी दहशत है। दरअसल, जब भी कोई बड़ी खबर होती है तो चैनल का दबाब रहता है कि “साईड” स्टोरी ढूंढो। ऐसे में रिपोर्टर के लिए सबसे आसान तरीका है आस-पड़ोस के लोगों का वॉक्सपॉप (एक मुद्दे पर ढेर सारी बाईट या ये कहे कि अलग-अलग लोगों का रिक्शन)।

सीन नंबर 4---रांग नंबर
इस बीच मेरे एक सहयोगी ने आरूषि के पिता राजेश तलवार, आरूषि और नूपुर तलवार की मोबाइल डिटेल निकाल ली थी। जिस रात हत्या हुई थी उसकी सुबह एक लैंडलाइन फोन से आरूषि के मोबाइल पर फोन आया और कुछ सेकेंड के बाद डिसकनेक्ट हो गया। एक वरिष्ठ सहयोगी ने जल्द ही खुलासा कर दिया किया कि वो नंबर नोएडा के ही एक डेयरी के पास से आया है। आनन फानन में चैनल में एक्सक्लूसिव बैंड के साथ बड़ी बड़ी ब्रेकिंग चलानी शुरू हुई... कि आखिर किसने किया आरूषि के मोबाइल पर फोन.... वही कातिल तो नहीं था.... क्या जानना चाहता था वो कातिल। लगातार एक्सक्लूसिव करने वाले इस रिपोर्टर का लाइव चैट और एक दूसरे वरिष्ठ रिपोर्टर का फोनों चल रहा था। करीब आधा घंटे तक ये खबर ‘पीट-पीट’ कर चलती रही। तभी मेरे पास एक फोन आया... जिसका फोन आया उधर से एक आदमी गुस्से से चिल्ला रहा था। आरूषि के ताऊ दिनेश तलवार का फोन था। उन्होने चैनल पर केस कर डालने की धमकी दे डाली। मैने भलाई समझते हुए अपना फोन बॉस को सुनने के लिए दे दिया। दरअसल बार बार जिस नंबर को कातिल का नंबर बताया जा रहा था वो किसी और का नहीं बल्कि दिनेश तलवार के घर का नंबर था। दिनेश तलवार से माफी भी मांगी गई और जल्दी जल्दी ये खबर गिराई गई। इस तरह की बेवकूफी तभी होती है जब क्राइम रिपोर्टर बिना क्रॉसचैक किए खबर चलाने में लगा रहता है।

सीन 5- अफवाहों का दौर
चौबीसों घंटे रिपोर्टर आरूषि के घर पर गिद्ध जैसी नजर गड़ाए रहते थे। अब कवरेज करते करीब एक हफ्ते से ज्यादा हो चुके थे लिहाजा आसपास के लोगों से भी रिपोर्टर जान पहचान बना चुके थे। जिस चैनल के रिपोर्टर-कैमरामैन के लिए उनके ऑफिसवाले खाना और पानी भिजवा देते थे... उनके लिए कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन जिनके ऑफिस से नहीं आता था उनमें से कुछ रिपोर्टर्स को आरुषि के पड़ोसी खाना पानी दे देते थे। पड़ोसी भी रिपोर्टर को कुछ खिलाने के एवज में रिपोर्टर्स से अंदर की बात निकलवा लेते थे। लेकिन ये अंदर की बात कम और अफवाहे ज्यादा होती थी। पड़ोसी भी अफवाहों का दौर गर्म करके रखते थे।

सीन 6-पान का पीक या खून का धब्बा
अबतक नोएडा पुलिस को ना तो आला-ए-कत्ल (हत्या में इस्तेमाल किया गया हथियार) मिला था और ना ही कोई सुराग। ये शायद पहला मौका था जब क्राइम रिपोर्टर्स की डिक्शनरी में “आला-ए-कत्ल” शब्द का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाने लगा। शक लगातार तलवार दंपत्ति पर गहराता जा रहा था। रिपोर्टस को भी स्पॉट पर कुछ ज्यादा करने को नहीं मिल रहा था। तभी सर्वश्रेष्ठ चैनल के रिपोर्टर की नजर तलवार साहब के बंद पड़े गैराज पर गई। चूंकि सब उस वक्त ‘जेस्म बॉन्ड’ बने हुए थे तो गैराज में झांक कर देखा। बस उस दिन एक शगूफा छोड़ा गया कि उस बंद गैराज में कुछ खून से सना पड़ा था। फिर क्या था नोएडा पुलिस की धज्जियां उड़नी शुरू। धड़ाधड़ ब्रेकिंग न्यूज और लाइव चैट शुरू। चूंकि ये दोहरा हत्याकांड बहुत बड़ा हो चुका था तो कान्सटेबल क्या नोएडा पुलिस का इन्स्पेक्टर भी उस बंद गैराज को खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। आनन फानन में एसपी सिटी और कुछ फॉरेन्सिक एक्सपर्ट को बुलाकर गैराज खुलवाया गया। मुझे अच्छे से याद है कि रिपोर्टर्स फॉरेन्सिक एक्सपर्ट को धकिया कर खुद ही अंदर घुस गए। जिस रिपोर्टर के हाथ में जो आ रहा था वो उस गैराज से उठा रहा था। किसी के हाथ में आरूषि की बचपन की डायरी हाथ में लगी तो दूसरे चैनल्स के रिपोर्टर ने छीना छपटी शुरू कर दी। और हां वो गैराज में खून से सना कुछ भी नही था... पता चला वो पान मसाले की पीक थी। लेकिन क्राइम रिपोर्टर की तो उस दिन की “दिहाड़ी” पूरी हो चुकी थी।

सीन 7- आईजी की प्रेस कॉंन्फ्रैंस
मेरठ जोन के आईजी की प्रेस कॉन्फ्रैंस भला कोई कैसे भूल सकता है। दरअसल, आरुषि हत्याकांड़ के विवाद की जड़ यही प्रेस कॉन्फ्रैंस थी। या यूं कहे कि सारे विवाद इसी प्रेस-वार्ता के बाद से ही शुरु हुए। नोएडा पुलिस ने आरुषि के पिता डाक्टर राजेश तलवार को गिरफ्तार कर आनन-फानन में मीडिया के सामने मामला को सुलझाने का दावा कर डाला। चूंकि मामले ने तूल पकड़ रखा था। विदेशी अखबार और मीडिया तक में मामला आ चुका था। इसलिए, नोएडा के एसएसपी ने आईजी साहब को मीडिया को संबोधन करने के लिए आगे कर दिया। अक्सर, ऐसा ही होता है। जितनी बड़ी प्रेस-वार्ता उतना ही बड़ा अधिकारी। लेकिन शायद आईजी साहब ने एसएसपी या दूसरे पुलिस अधिकारी से देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री से जुड़े तथ्य भी ठीक से नहीं सुने थे। नतीजा, प्रेस कॉन्फ्रैंस शुरु होते ही हंगामा मच गया। आईजी साहब बार-बार आरुषि का नाम कुछ (सुरुचि-सुरुचि) और बोल देते। फिर हत्या की वजह जो उन्होने सार्वजनिक तौर पर कही उसे लेकर बबाल हो गया। किसी लड़की और महिला के चरित्र को लेकर उन्होने जो वजह गिनाने शुरु की तो मानों भूचाल आ गया। मामले को सुलझाने का दावा भरने के बाबजूद, उत्तर प्रदेश सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी। वो बात और है कि यू पी पुलिस के अधिकारी अब भी दबी जुबान में यही बात कहते सुने जा सकते है कि सीबीआई भी घूम-फिरकर वही पहुंच रही है जहां नोएडा पुलिस पहुंची थी—यानि राजेश तलवार पर। हाल ही में सीबीआई ने भी आरुषि के पिता, राजेश तलवार और मां, नूपुर तलवार का नारको-टेस्ट कराया है। लेकिन मेरठ के आईजी साहब ने वजह तो भले ही सही बताई हो, लेकिन उनके बताने का तरीका गलत था। एक सीनियर आईपीएस अधिकारी को इतना तो समझना चाहिए कि दुनियाभर की मीडिया के सामने वो कैसे एक लड़की, महिला, माता-पिता, नौकर और अंकल-आंटी के चरित्र को लेकर अंटशंट बक सकता है। चूंकि सभी चैनल्स इस पीसी (प्रेस कॉन्फ्रैस) को लाइव काट रहे थे (यानि सीधा प्रसारण) उसमें एडिटिंग की गुंजाइश बिल्कुल नहीं था। यानि सभी चैनल्स, आईजी साहब के भोपू के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे थे। जो आईजी साहब बोल रहे थे, वही पूरी दुनिया सुन रही थी और देख रही थी। आईजी साहब का बाद में इस बयानबाजी को लेकर ट्रांसफर कर दिया गया था।

सीन 8-अश्लील एमएमएस
आईजी साहब ने पीसी खत्म की नहीं कि एक चैनल (जो कुछ महीने पहले ही लांच हुआ था) ने ‘आरुषि का एमएमएस’ दिखाना शुरु कर दिया। इस एमएमएस के जरिए चैनल क्या बताना चाहता था, ये आज तक साफ नहीं हो सका है। वो, आईजी के इस बयान पर मोहर लगाना चाहता था कि वाकई मरने वाली लड़की का चरित्र ठीक नहीं था और उसके पिता ने शायद इसी वजह से पहले अपनी ही बेटी की हत्या नौकर (हेमराज) के हाथों करवा डाली—और फिर खुद नौकर को ठिकाने लगा दिया। या ये कि, इस एमएमएस का हत्याकांड से कोई नाता था। हां, ये बात जरुर है कि बाद में ये बात साफ हो गई कि एमएमएस में दिखाई जाने वाली लड़की आरुषि नहीं कोई और थी।

सीन 9-तलवार दंपत्ति की चुप्पी
इस पूरे मामले को कही ना कही खुद तलवार दंपति ने ही विवादों में डाल डाल दिया था। दरअसल, हत्या के बाद से ही तलवार दंपत्ति के साथ-साथ उनके करीबी और रिश्तेदार तक चुप्पी साधें हुए थे। ऐसे में मीडिया ने अटकले लगाने को जो दौर शुरु किया वो आजतक जारी है। वैसे चुप्पी साधना कोई गलती नहीं है। ये हर आदमी की अभिव्यक्ति पर है कि वो चैनल से बात करे या नहीं। उसपर किसी भी तरह का दबाव नहीं डाला जा सकता है—भले ही वो कितना बड़ा कसूरवार ना हो। तलवार दंपत्ति ने पूरे मामले पर तभी जुबान खोली जब नोएडा पुलिस ने राजेश तलवार को अपनी ही बेटी और नौकर हेमराज की हत्या का आरोपी ठहराते हुए गिरफ्तार कर लिया था।

सीन 10-अनीता दुर्रानी ने सुसाइड किया
टीवी और अखबारों के पत्रकारों के साथ साथ अब पुलिस को भी यही लगने लगा कि कातिल राजेश तलवार हैं। मेरठ के आईजी ने प्रेसकॉन्फ्रेंस में केस का खुलासा भी कर दिया कि राजेश तलवार ने अनीता दुर्रानी के साथ हुए अवैध संबंधों के चक्कर में आरूषि और हेमराज को रास्ते से हटा दिया। उस दिन तो दिनभर चैनलों पर पुलिस की ही थ्योरी चलती रही। हम सभी को ऐसा लगा कि अब शायद केस खत्म हुआ लेकिन नहीं, रोज रोज नई डेवलेपमेंट होती जा रही थी। इसलिए अभी भी पत्रकारों का जमावड़ा जलवायु विहार में था। ज्यादा कुछ करने को था नहीं तो अधिकतर रिपोर्टर्स चाय की चुस्की के साथ गप्पे मार रहे थे। इसी बीच एक क्राइम रिपोर्टर ने शगूफा छोड दिया कि पुलिस की थ्योरी से गमगीन ‘अनीता दुर्रानी ने सुसाईड’ कर लिया है। ये बात सारे रिपोर्टर हंसी मजाक में कर रहे थे कि ‘सर्वश्रेष्ठ चैनल’ की एक महिला पत्रकार ने चुपचाप जाकर खबर ब्रेक कर दी कि अनीता दुर्रानी ने सुसाइड कर लिया है। चूंकि खबर बड़े चैनल पर ब्रेक हुई थी तो हम सभी के फोन घनघनाने शुरू हो गए। ऐसा ही हुआ था आरुषि-हेमराज हत्याकांड की रिपोर्टिंग के दौरान। क्या रिपोर्टर और क्या न्यूज चैनल्स...सभी ब्रैकिंग न्यूज जल्द से जल्द चलाना चाहते थे। नतीजा...अनीता दुर्रानी का सुसाइड !

सीन 11-मीडिया के गुंडे
नोएडा पुलिस की जांच पर सवालिया निशान लगाते हुए नूपुर तलवार की अर्जी पर मामले की जांच अब सीबीआई के हवाले थी। सीबीआई ने नूपुर तलवार के कंपाउंडर कृष्णा और अनीता दुर्रानी के नौकर राजकुमार को हिरासत में लेकर पूछताछ शुरू की। अब जब कृष्णा पर सीबीआई ने कत्ल का शक जताया।
कृष्णा के घरवालों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स की थी। कृष्णा और उसका परिवार आरूषि के घर से महज 50 कदम की दूरी पर ही एक रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर के घर में रहता था। प्रेस-कॉन्फ्रेन्स रिटायर्ड आर्मी अफसर के घर में ही रखी गई। सभी चैनल उस पीसी को लाइव काटना चाहते थे... लेकिन कमरा इतना छोटा था कि पॉसिबल नही था। ऐसे में एक चैनल की तेज तर्रार महिला पत्रकार अपने कैमरामैन के साथ कमरे में घुस गई और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। (उसकी ये मंशा थी कि सिर्फ ये पीसी एक्सक्लूसिव उसी के चैनल पर चले) बस फिर क्या था भाईलोगों को ये बात बुरी लग गई। कृष्णा के परिवार वालों का लाइव इंन्टरव्यू ज्यों ही उस अंग्रेजी चैनल पर चला...बाकी चैनल के रिपोर्टस के फोन घनघनाने शुरू हो गए। कई चैनल के बॉस लोगों ने अपने रिपोर्टर को गाली देनी शुरू कर दी... बीप....बीप... अगर अपने यहां लाइव नही चला तो नौकरी से निकाल दूंगा। बीप बीप...उस चैनल पर कैसे चल रहा है. बीप.... खा खा कर “घोरा होते जा रहे हो गधे।” अधिकतर रिपोर्टर्स की ऐसे ही क्लास लग रही थी। बस फिर क्या था। कुछ रिपोर्ट्स जिनको उनके ऑफिस से फटकार लग रही थी उन्होने कमरे के दरवाजे को धक्का देना शुरू कर दिया। अंदर बैठी महिला रिपोर्टर को धमकाना शुरू कर दिया... बीप बीप... आज तू इस कमरे से निकल कर दिखा... घर भी नहीं जा पाएगी.. बीप। उस ‘ढीठ’ लड़की ने भलाई इसी मे समझी की दरवाजा बंद ही रखा जाए। बाहर खड़े रिपोर्टस का पारा हाई। सबने दरवाजा तोड़ना शुरू कर दिया। दरवाजा टूटते देख 75 साल के बुजुर्ग घर से बाहर निकले...तो रिपोर्टस ने आव देखा ना ताव उनके साथ गाली गलौच पर उतर आए... बुढढे आज ही मरेगा तू... बीप बीप... तेरा घर तहस नहस कर देंगे। अंकल के ऊपर इतनी गालिया सुनते आंटी भी घर से निकली तो एक रिपोर्टर ने उन्हें ऐसा धक्का मारा कि दीवार में जाकर वो टकरा गई। अंकल-आंटी ने रिपोर्टर्स को गुंडा समझा और पुलिस को बुला लिया। बाहर खीजते रिपोर्टर्स को जब कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने ओबी (लाइव के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वैन) के उस तार को ही काट डाला, जिससे उस अंग्रेजी चैनल पर लाइव चल रहा था... बीप बीप... अब देखते हैं कैसे लाइव चलता है.. बीप बीप। जब अचानक उस अंग्रेजी चैनल पर प्रेसकान्फैंस का लाइव प्रसारण रूक गया तो महिला रिपोर्टर ने दरवाजा खोल दिया। तब फिर क्या था सब रिपोर्टर कृष्णा के घर में घुस गए... दे ठेलम ठेल... धक्का मुक्की, जूतम-पैजार, एक रिपोर्टर तो कृष्णा की बहन के ऊपर ही गिर गया। किसी के कपड़े फटे तो किसी को मोबाइल टूटा। हर चैनल वाला कृष्णा की बहन को अपने चैनल पर लाइव ले जाने के चक्कर में था। ये खींचतान करने में एक गर्भवती रिपोर्टर भी पीछे नहीं थी। हैरानी बात ये थी कि ये ठेलम ठेल में लाइव चल रही थी। चैनल के ऑफिस में बैठे बॉसेज को भी यही उम्मीद थी कि कब कृष्णा के परिवार वाले उनके चैनल को लाइव देगें। बस ऐसे में एक न्यूज चैनल (इंडिया टीवी) ने अकलमंदी दिखाई कि उसके मैनेजिंग एडिटर ने जब ये हंगामा और पत्रकारों का ये रूप देखा तो उसने रिपोर्टर्स के शक्ल पर गोल घेरा करके तीर के जरिए ये चलाना शुरू कर दिया..“ये हैं मीडिया के गुंडे”।

सीन 12-चैनल की वॉल पर दूसरे चैनल के रिपोर्टर
धीरे धीरे जब मीडिया की नंगई सामने आने लगी...ये कहा जाए तो ज्यादा सही रहेगा कि जब एक न्यूज चैनल ने अपनी टीआरपी के लिए दूसरे चैनल के लोगों को गलत ठहराया गया तब जाकर दूसरे चैनल वाले होश में आए। सब क्राइम रिपोर्टर्स को सभ्यता से पेश आने की हिदायद दी गई।
लेकिन कृष्णा के मकान मालिक और उसके परिवार वालों से बदसलूकी के बाद भी कुछ रिपोर्टर्स और उनके बॉस लोगों को शर्म नहीं आई। वो संवाददाता अपना बखान ऐसे कर रहे थे जैसे कि दूसरे चैनल का लाइव प्रसारण रोक कर कोई जंग जीत ली हो। लेकिन ये सिलसिला सिर्फ एक दिन का ही नहीं था। अगले दिन फिर मीडिया के लोगों ने ऐसा ही कुछ किया। अगले दिन फिर जब कृष्णा के घरवालों ने प्रेस कॉन्फ्रैन्स की तो नजारा फिर गाली गलौच और धक्कामुक्की वाला था। सब एक्सक्लूसिव करने में लगे थे लेकिन साथ ही ये भी खयाल था कि अगर एक का नहीं होगा तो किसी का नहीं होने देंगे। इस बार हंगामा इतना था कि जी न्यूज पर स्टार न्यूज का रिपोर्टर और आईबीएन 7 पर आजतक का रिपोर्टर दिख रहा था।

सीन 13- इंटरव्यू के लिए एसएमएस से धमकी
लगातार दो दिनों से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा किए जा रहे हंगामे को कुछ हिंदी अखबारों ने भी खूब जमकर फोटो सहित छापा। न्यूज चैनल्स की बदनामी होते देख लगभग सभी चैनल के बॉस लोगों ने ये संयम रखने की हिदायत दी। लेकिन साथ ही वो आरूषि केस में एक्सक्लूसिव भी चाहते थे। बार बार फोन कर कर के अपने रिपोर्ट्स को कृष्णा के परिवार को ऑफिस में लाइव के उठा लाने की बात भी करते थे। अब सैकड़ों रिपोर्टर्स के बीच कृष्णा के परिवार को एक्सक्लूसिव लाइव पर लाना संजीवनी बूटी लाने जैसा ही था।
ऐसे में (आजतक को पहली बार तीसरे नंबर पर धकेलने वाले) इस चैनल के एक क्राइम रिपोर्टर ने एक बहुत गलत तरीका अख्तियार कर लिया। उस रिपोर्टर ने कृष्णा के घरवालों को एसएमएस के जरिए इन्टरव्यू ना देने के एवज में धमकाना शुरू कर दिया। एक के बाद एक वो कृष्णा के घरवालों को धमकी भरे एसएमएस करता। लेकिन जब ये बात चैनल के अधिकारियों को पता चली तो उस रिपोर्टर को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

सीन 14-आरुषि का भूत!
चाहे दिन का उजाला हो या देर रात, रिपोर्टर 24 घंटे आरूषि के घर के सामने खडे़ रहते थे।
इस उम्मीद में कहीं सीबीआई की टीम दोबारा ना आ जाए या फिर किसी की गिरफ्तारी ना हो जाए। एक चैनल के रिपोर्टर को तो फोबिया हो गया था। वो वही गाड़ी में सोया हुआ था अचानक आरूषि आरुषि करके चिल्लाने लगा। उसके आंख बंद करते ही आरूषि उसके सपने में आती थी... ना सिर्फ आती थी बल्कि कत्ल की पूरी वारदात को रिक्रिएट करके बताती थी।

सीन 15- अपनी ढपली अपना राग
पहले नोएडा पुलिस और बाद में सीबीआई के मामले की ‘गुत्थी को सुलझाने’ के दावे के बाबजूद हर रिपोर्टर और हर चैनल कत्ल से जुड़ी थ्योरी दिखाने में तल्लीन था। कोई तलवार दंपति के पूर्व नौकर विष्णु को हत्यारा बता रहा था तो कोई वाइफ स्वैपिंग का राग अलाप रहा था। मजे की बात ये थी कि जो थ्योरी चैनल्स पर चलती थी, पुलिस और सीबीआई की तफ्तीश की दिशा भी उसी ओर घूम जाती थी। मानो पुलिस और सीबीआई भी सभी चैनल्स को 24X7 वॉच कर रही थी। किसी चैनल ने चला दिया कि आरुषि के कत्ल का वक्त रात नहीं दिन था। किसी ने प्रेस-कांफ्रेस में आईजी साहब से पूछ डाला कि आरुषि का पोस्टमार्टम दुबारा हो सकता है क्या। वो भी तब जब कि आरुषि का अंतिम-संस्कार हो चुका था।

सीन 16-खूनी पंजा
जलवायु विहार के जिस फ्लैट की छत पर नौकर हेमराज की लाश मिली थी, वहां एक खून से सने पंजे का निशान था। कयास लगाया जा रहा था कि ये किस का पंजा है---हेमराज का या फिर खूनी का। ये पंजा इस हत्याकांड मे इतना चर्चित हुआ कि एक चैनल के एंकर ने अपना एक हाथ लाल रंग से रंगकर छत से एंकरिंग करने लगा। बाद में जब सीबीआई ने दीवार से इस पंजे को काटकर निकाला तो दिनभर पंजे को दीवार से काटने का विजुअल ही चलता रहा। ये बात और इस पंजे की काटने को लेकर भी कई चैनल्स भी हंगामा हुआ। दरअसल, एल-32 फ्लैट के आस-पास के एरिया को सीबीआई ने मीडिया के लिए बंद कर दिया था। सिर्फ एक चैनल का रिपोर्टर और कैमरामैन एल-32 फ्लैट के सामने वाली छत पर किसी तरह चढ़ गया और सीबीआई के हरएक एक्शन को अपने कैमरे में कैद कर लिया। बस जैसे ही पंजे के काटने का विजुअल चैनल पर चला, सब जगह हड़कंप मच गया।

सीन 17-सीबीआई का गूफअप
आरुषि हत्याकांड की तफ्तीश का जिम्मा जब सीबीआई को दिया गया तो लगा कि अब इंसाफ हो ही जाएगा। लेकिन सीबीआई ने तो पूरे मामले को और उलझा कर रख दिया। कभी राजेश तलवार को आरोपी बनाया, तो कभी नौकरों और कंपाउडरो को। रिपोर्टर और न्यूज चैनल भी उसी भाषा में बोलते थे जो सीबीआई बोलती थी। धीरे-धीरे सीबीआई की असलियत भी सबके सामने थी। नतीजा के डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी अंधेरे में ही हाथ-पांव मारते दिखाई दे रही है। ऐसे में जब भी सीबीआई ‘कुछ’ करती है तो वो न्यूज चैनल्स में हेडलाइन बन जाती है---कभी आरुषि का मोबाइल हाथ लगना, तो कभी तलवार दंपत्ति का नारको-टेस्ट इत्यादि-इत्यादि।
लेकिन एक बात जरुर है कि आरुषि हत्याकांड इस देश के न्यूज चैनल्स और रिपोर्टर्स के लिए एक सबक बन गया है कि अभी भी वक्त है सुधरना है तो सुधर जाओ वर्ना सुप्रीम कोर्ट का डंडा चलने में देर नहीं लगेगी।

Monday, February 1, 2010

झुठ (या झूठ) का सच


हर न्यूज चैनल में राजपाल यादव जैसे लोग मौजूद रहते हैं...जो ना सिर्फ चापलूसी में यकीन रखते हैं बल्कि चैनल्स में बॉस लोगों की क्या प्लानिंग चल रही हैं... इन्क्रीमेन्ट हो रहा है या नहीं, एक और चैनल खुल रहा है, कितने लोगों को चैनल से निकाला जा रहा है.... बाप रे बाप ये सारी गॉसिप्स के पिटारे को वो ढोता रहता है...
रण फिल्म रिलीज होने और देखने के बाद, अब समझ आ रहा है कि मुंबई हमले के फौरन बाद रामगोपाल वर्मा, रितेश देशमुख के साथ ताज होटल क्यों पहुंच गए थे। उस वक्त काफी बवाल हुआ था। रितेश के पिता और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री, विलासराव देशमुख को भी इस 'विजिट' के लिए दंश झेलना पड़ा था। उस वक्त ये बात साफ नहीं हो पाई थी कि रामू का वहां क्या काम ? लेकिन रण देखकर सब साफ हो गया।

कल रण देखने का मौका मिला। रण फिल्म का चस्का इस वजह से ज्यादा था क्योंकि ये फिल्म न्यूज चैनल की वर्किंग को लेकर बनी थी। फिल्म के प्रमोशन में अमिताभ बच्चन और रामगोपाल वर्मा तमाम न्यूज चैनल्स में घूमे भी थे। लेकिन हैरानी की बात ये है कि रामू ने पिक्चर बनने के बाद ही क्यों न्यूज रूम का दौरा किया... अगर पहले करते तो शायद फिल्म और भी बेहतर बन सकती थी। कम से कम फिल्म में इंडिया-24 पर चलने वाली ब्रेकिंग न्यूज और टिकर के लिखने में तो गलतियां नहीं होती--जैसे, झुठ, अतूल, फिसदी...अब तो आप को समझ आ ही गया होगा ना कि ब्लॉग के टाईटल में झूठ को 'झुठ' क्यों लिखा है। लेकिन फिल्म में कई ऐसी बातें है जो वाकई न्यूज चैनल्स में होती हैं। थीम अच्छा है।
शुरूआत से ही रामू ने ये दिखाने की कोशिश की कि न्यूज चैनल पर 3Cs भारी है... 3C मतलब क्राइम, सिनेमा (या सिलेब्रेटी) और क्रिकेट। रामू ने चैनल की नब्ज सही पकड़ी क्योंकि अधिकतर न्यूज चैनल्स में ज्यादा टाइम तक यही खबरें भरी पड़ी रहती हैं। न्यूज चैनल्स के विधाताओं का मानना है कि सिर्फ 3c ही टीआरपी दिला सकतें हैं। वैसे अब इस ट्रेंड में थोड़ा बदलाव भी आया है अब गंडे माला पहने तांत्रिक, भूत प्रेत, ज्योतिषी भी टीआरपी दिलवा सकते हैं।

रण देखते वक्त मुझे बिल्कुल ऐसा लगा कि असल न्यूज चैनल की कहानी दिखाई जा रही है। टीआरपी ना आने का मर्म, एक चैनल के नए प्रोग्राम का पहले ही लीक हो जाना, एक नया रिपोर्टर जो ये ठान कर आया है मीडिया जगत में कुछ अलग करेगा, बॉस का अपने चैनल के लोगों से कुछ हंगामें वाली स्टोरी करने को कहना, धमाकेदार इन्वेस्टिगेटिव स्टोरीज करवाना... ये सब एक न्यूज चैनल की हकीकत है। क्योंकि असल में ये बॉस लोगों की डिमांड रहती है कि “हंगामा हो”। वजह टीआरपी और सिर्फ टीआरपी होती है। अब बॉस लोगों को कौन समझाए कि रिपोर्टर का टीआरपी से क्या वास्ता। अगर बीच मीटिंग में बोलों तो स्थिति रण के पूरब शास्त्री जैसी। चारों तरफ से बीच मीटिंग में आप ऐसे घेरे जाएंगे जैसे चक्रव्यूह में फंसा कोई अभिमन्यु।

ये दूसरी चीज है कि बॉस ने हंगामा ‘क्रिएट’ ना करने को बोला हो लेकिन रिपोर्टर पर ये दबाव रहता है कि वो स्टोरी में हंगामा करवाए। ऐसे में कई रिपोर्टर वास्तविकता से भटक-कर स्टोरी क्रिएट करवा लेते है। ऐसे में अगर उसके ऊपर ‘बॉस का हाथ’ हो तो रिपोर्टर की बल्ले बल्ले। कई किस्से हुए जिसमें रिपोर्टर के साथ साथ उस चैनल के एडिटर पर भी उंगली उठी हो। कई बार ऐसा पढ़ने और देखने को मिला कि सेक्स रैकेट के जुड़े कई स्टिंग या स्टोरीज क्रिएट करवाई गई थी। बाद में बहुत हंगामा हुआ...चैनल को ऑफ एअर होना पड़ा...रिपोर्टर को अपनी नौकरी से हाथ धोना पडा़।

हर एक न्यूज चैनल में राजपाल यादव जैसे लोग मौजूद रहते हैं...जो ना सिर्फ चापलूसी में यकीन रखते हैं बल्कि चैनल्स में बॉस लोगों की क्या प्लानिंग चल रही हैं... इन्क्रीमेन्ट हो रहा है या नहीं, एक और चैनेल खुल रहा है, कितने लोगों को चैनल से निकाला जा रहा है.... बाप रे बाप ये सारी गॉसिप्स के पिटारे को वो ढोता रहता है। फिल्म में तो कम से कम राजपाल यादव एंकर तो था, लेकिन असल न्यूज चैनल की जिंदगी में तो कई, सिर्फ चाटुकारिता के बल पर इन्टस्ट्री में डटे हुए हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि वही चैनल के मालिक है....बाहर की बात बॉस तक और बॉस का मैसेज बाहर तक उनका यही काम रहता है। अगर बॉस की नजर में वो चापलूस अगर पास हो गया तो फिर क्या है। राजपाल यादव जैसे ही वो भी एक नए चैनल पर बड़ी पोस्ट या यू कहें चैनल हैड बनने के सपने देखने लगता है।

कई चैनलों में उद्योगपतियों, राजनीतिक दलों, बिल्डर और फिल्म इन्डस्ट्री से जुडे कई लोगों ने करोड़ों रूपए लगे हैं। कई चैनल सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के भी हैं। तो जाहिर सी बात है कि पत्रकारिता में राजनीतिक दलों का तो हस्तक्षेप रहेगा ही। रण फिल्म में प्रधानमंत्री के स्टिंग ऑपरेशन दिखाए जाने के कुछ दिनों बाद ही विजय हर्षवर्धन मलिक को ये लगने लगता है कि इंडिया-24 मोहन पांडे का पीआरओ बन बैठा है। लेकिन क्या असलियत में भी किसी चैनल को ऐसा लगता है....हकीकत तो ये है कई चैनल एक आधी पार्टी के पीआरओ ही बन बैठे हैं। एक ही पार्टी के नेताओ की खबरें और इन्टरव्यू देखने को मिलते हैं। कई बार रिपोर्टिग करते वक्त मैने पाया कि विपक्ष पार्टी के नेताओं ने खुलेआम उस चैनल पर आरोप लगा दिया हो। अभी जल्द ही मीडिया से ही जुड़े एक सज्जन ने बताया कि एक न्यूज चैनल पर आने वाले एक खास प्रोग्राम का प्रचार सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस में ही होता है....क्यों... क्योंकि सोनिया गांधी इंडियन एक्सप्रेस ही पढ़ती हैं। ये बात हम सबने मजाक में उड़ा दी लेकिन इस बात में सच्चाई भी हो सकती है।

बस फिल्म में एक बात नहीं जमती ये कि पूरब शास्त्री ने चैनल में चल रहे गोरखधंधे को देखते हुए पत्रकारिता छोड़ने का मन बना लिया। हमेशा या यूं कहूं तो अधिकतर ऐसा नहीं होता है कि पत्रकारिता पर बाहर का दबाव रहता है। पत्रकार—खासतौर से एक क्राइम रिपोर्टर—अमूमन स्वतंत्र होता है। उसे सच्चाई और असलियत लिखने की आजादी रहती है। जो खबर जैसी हो उसे वैसा ही प्रेजेंट करने का हक होता है। फिल्म में आखिरकार सच्चाई की ही जीत हुई।

देश के चैनल्स की बात करें, तो एक-दुका चैनल्स को अपवाद मान कर छोड़ दे---और ये भी वो चैनल है जिनकी रेटिंग्स बहुत कम है या फिर टीआरपी की दौड़ से लगभग बाहर हैं—तो हमारे देश के अधिकतर चैनल्स निष्पक्ष है। उनका किसी भी राजनैतिक पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया में काम करने वाले व्यक्ति-विशेष का किसी पार्टी या नेता की तरफ झुकाव हो सकता है लेकिन चैनल का किसी और शायद ही हो। आजतक, स्टार न्यूज, इंडिया टी.वी, आईबीएन-7, जी न्यूज, एनडीटीवी की खबर देखने के बाद कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि ये चैनल किसी (पोलिटकल) पार्टी या नेता के माऊथपीस की तरह काम करे रहें हो।

मैने जिस चैनल में काम किया था, वो कांग्रेस के एक बड़े नेता का है। लेकिन वहां काम करते हुए मुझे (और बाकी पत्रकारों) को शायद ही कभी ये एहसास हुआ हो कि हम कांग्रेसी चैनल में काम करते हैं। लेकिन मैंने अपने पति से जरुर सुना है कि उन्होंने जिस अखबार—नेशनल हेराल्ड—में काम किया था, वहां सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की तारीफ और बड़ाई वाली ही खबरें होती थी। करीब डेढ़ साल पहले नेशनल हेराल्ड बंद हो गया था। लेकिन अंदर की खबरें ये बता रही हैं कि जल्द ही राहुल गांधी के नेतृत्व और छत्र-छाया में ये अखबार जल्द ही बाजार में जोर-शोर से उतरने वाला है।
अखबारों में अमूमन ऐसा देखा गया है कि वो किसी ना किसी पार्टी की तरफ झुकाव रखते हैं। अंग्रेजी अखबार, हिंदुस्तान टाईम्स ( और हिंदी हिंदुस्तान) का किस पार्टी की ओर झुकाव है ये किसी से छिपा नहीं रहा है। द-हिंदु अखबार भी एक विशेष विचारधारा से प्रभावित है। ये दोनो वे अखबार है जो भारत के जाने-माने अखबार है। सर्कियुलेशन भी बहुत ज्यादा है। पायनियर के चीफ एडिटर भले ही राज्यसभा के सदस्य रहें हो, लेकिन वे खुद और उनका अखबार किस पार्टी का माऊथपीस है भला कौन नहीं जानती। लेकिन टी.वी में, पुछल्ले चैनल्स ही किसी ना किसी पार्टी लीडर या पार्टी के माऊथपीस हैं। हां ये बात जरुर है कि देश का सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाला अखबार, टाईम्स ऑफ इंडिया अभी भी अपनी निष्पक्ष खबरों के लिए जाना जाता है।
वैसे, रण फिल्म देखकर ऐसा लग रहा है कि जैसे अब हम—यानि पत्रकार—पुलिसवालों की श्रेणी में आ गए हैं। याद है ना किस तरह से मुंबईया फिल्मों में खाकीवर्दी को दागदार दिखाया जाता है। अपराधियों से सांठगांठ, किसी भी जगह पर सबसे बाद में पहुंचना, इत्यादि-इत्यादि...अब मीडियावालों को भी ऐसा ही कुछ कोप झेलना पड़ेगा। इस फिल्म से कुछ महीने पहले भी एक ऐसी ही हिंदी फिल्म, शोबिज़, आई थी। फिल्म बॉक्स-आफिस पर कुछ ज्यादा चल नहीं पाई। लेकिन उसमें भी मीडिया और एक क्राइम रिपोर्टर की कहानी दिखाई गई थी। अगर फिल्म देखगें तो, रामू की रण भूल जाएंगे।

Friday, December 25, 2009

फिल्मी दीवाने पहुंचे 'फिल्म-दीवाने'


फिल्मों के शौकीन को कहते हैं फिल्म-दीवाने। हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा हो जिसे फिल्में देखना या उसके बारे में बात करना पसंद ना हो। लेकिन ‘फिल्म-दीवाने’ घूमने का भी कोई शौकीन हो सकता है, कभी सपने में भी नहीं सोचा था। सुनकर हैरान मत होइएगा, हमारे देश में एक ऐसी जगह भी है जिसे फिल्मी-दीवाने कहते है। जानना चाहेंगे क्यों, तो सुनिए!
हाल ही में, मैं और मेरे पति घूमने के लिए ऊटी गए थे। जबसे मैने फिल्में देखनी या यूं कहिए के फिल्मों के बारे में थोड़ा–बहुत जानना शुरु किया, तबसे ये नाम (ऊटी) मेरे जहन में अच्छे से बस गया था। सत्तर और अस्सी के दशक की ना जाने कितनी फिल्मों की शूटिंग इसी खूबसूरत हिल-स्टेशन पर हुई थी। लेकिन जैसे-जैसे दूसरे हिल-स्टेशन (नैनीताल, मसूरी इत्यादि) चर्चित होने लगे, शूटिंग वहां भी होने लगी। कश्मीर तो पहले से ही फिल्म-निर्माताओं की पसंदीदा जगह थी। इसके बाद यश चोपड़ा ने विदेशी हिल-स्टेशनों (स्विटजरलैंड, आस्ट्रिया आदि) को बॉलीवुड में पॉपुलर कर दिया। फिर एक ऐसा दौर आया, जब निर्माताओं ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की ऐसी लोकेशन पर फिल्म शूट करनी शुरु कर दी जहां कम ही लोगों की नजर पड़ी थी—जैसे डलहौजी में 1942 ए लव स्टोरी, सुभाष घई की ताल, और ऋतिक रोशन की कोई मिल गया। लेकिन हिंदी हो या साऊथ की रीजनल फिल्में, ऊटी एक ऐसी जगह है जिसका क्रेज निर्माताओं में कम नहीं हुआ। नौकरी से इस्तीफा देने के बाद, मैं अपने पति से ‘कही’ बाहर घूमकर आने के लिए जिद कर रही थी। मेरे पति नें मुझे कई च्वाइस दी—जैसे दार्जिलिंग, केरल, ओरछा। लेकिन मुझे ना जाने क्यों, ऐसा लगा कि हमें ऊटी घूमकर आना चाहिए। मेरी मम्मी अभी भी मुझे बताती है कि जब मैं 3 साल की थी, तब वे भी पूरे परिवार के साथ ऊटी घूमकर आई थी। लेकिन 3 साल की बच्ची को ऊटी का कुछ याद नहीं था—याद है तो सिर्फ बॉलीवुड फिल्में।
हमने तय कर लिया कि हम जाएंगे तो ऊटी ही। फिर क्या था होटल बुकिंग से लेकर ट्रेन टिकट तक सब बुक कर लिया। जाने से कुछ दिन पहले ही हम दोनों (पति और मैं) एक बार फिर फिल्म देखने चल दिए—हम दोनों ही हिंदी फिल्म देखने के बड़े शौकीन है या यूं कहिए की फिल्म-दीवानें हैं। फिल्म थी ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’— ‘वेक अप सिड’ देखने के बाद से ही मुझे रणबीर कपूर की एक्टिंग अच्छी लगने लगी थी। जैसे ही फिल्म शुरु होने वाली थी, मेरे पति ने मुझे बताया कि इस फिल्म की शूटिंग ऊटी में हुई है।
दरअसल, फिल्म के शुरुआत में ही प्रोड्यूसर ने ऊटी की लोकेशन लिखी थी और वहां के होटलों का आभार प्रकट किया था। ये सुनते ही मैं सीट से मानों उछल ही गई। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा—मुझे इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि ‘अजब प्रेम...’ की शूटिंग ऊटी में हुई थी।
ऊटी जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि जाने से एक दिन पहले ही मुझे बुखार चढ़ गया। एक बार तो ऐसा लगा कि ऊटी घूमने का प्रोग्राम कैंसिल कर दिया जाए। लेकिन मैने किसी तरह मन पक्का किया और डॉक्टर से एक हफ्ते की दवाई लेकर हम ऊटी के लिए चल दिए। केरल एक्सप्रेस में दो दिन मैंने सोते हुए ही बीता दिए। मेरी तबीयत खराब होने की वजह से पति का मूड भी अपसेट हो गया। दरअसल, ट्रेन से जाने का विचार उन्हीं का था। विदेशी पर्यटकों की तरह ही हमें भी देश के अलग-अलग हिस्सों को ट्रेन से ही घूमना ज्यादा पंसद है। हवाई सफर से विभिन्न-विभिन्न प्रांतों के बारे में जानने का पता ही नहीं चलता। ट्रेन कई छोटे-बड़े शहरों और गांवों से होती हुई करीब आधा दर्जन राज्यों से होकर गुजरती है। ऐसे में वहां के लोग और मिट्टी को करीब से अच्छा समझा जा सकता है। लेकिन ट्रेन के वो दो दिन मैने कैसे काटे ये, मैं ही जानती हूं।
सुबह के करीब पांच बजे हमारी ट्रेन कोयम्बटूर पहुंच चुकी थी। वहां से हम टैक्सी से चल दिए ऊटी की ओर। केरल और कनार्टक सीमा से लगे नीलगिरी जिले में पड़ता है ऊटी (या ऊडागामंडलम)। चाय और कॉफी के बागानों के लिए जाने-जाना वाला ये हिल स्टेशन कोयम्बटूर से करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर है। जैसे-जैसे हमारी टैक्सी, चाय बागानों से होती हुई सुंदर और मनोरम पहाड़ी रास्तों से गुजर रही थी, वैसे-वैसे मुझ लग रहा था कि मेरी तबीयत कुछ अच्छी होती जा रही है। जैसे ही मैने ये बात पति को बताई तो, वे तपाक से बोल उठे, “तुम तो पुरानी हिंदी फिल्मों के उस सीन की तरह बात कर रही हो, जैसे जब कोई व्यक्ति बीमार होता था, तो फिल्म में डॉक्टर ऊटी या दार्जिलिंग जाने की सलाह देता था।”
उनकी बात सुनकर, मैं खिलखिलाकर हंस पड़ी—दो दिन बाद मैं पहली बार हंसी थी शायद।
खैर, मैं बता तो रही थी ‘फिल्म-दीवाने’ की, लेकिन बातों ही बातों में पूरा यात्रा वृतांत बता दिया।
ऊटी में अपने होटल (दाई तरफ फोटो में) पहुचंते ही मेरा मन और खिल उठा। एक तो होटल इतना शानदार था, दूसरा उसके ठीक सामने ही ऊटी-झील थी। होटल की कॉटेज से लेक (झील) का नजारा देखते ही बनता था।
अगले दिन हम होटल के रिसेप्शन पर ऊटी के बारे में घूमने की जानकारी लेने पहुंचे, तो मैनेजर ने कहा, “आप ‘फिल्म-दीवाने’ घूमना पसंद करेंगे ?” हमने एक-दूसरे को देखा और मैनेजर से पूछा, “ये ‘फिल्म-दीवाने’ क्या बला है?” मैनेजर ने जबाब दिया कि यहां (ऊटी) जितनी भी घूमने की जगह है उसे ‘फिल्म-दीवाने’ बोला जाता है। ऐसा क्यों है तो उसने बताया कि ऊटी में इतनी बड़ी तादाद में फिल्मों की शूटिंग होती है कि इन पर्यटक स्थलों को ‘फिल्म-दीवाने’ का नाम दे दिया गया है।
एक गाइड –नुमा टैक्सी ड्राइवर को साथ लेकर हम चल दिए ‘फिल्म-दीवाने’ घूमने। जैसे-जैसे टैक्सी ऊटी के पर्यटक स्थलों पर जा रही थी, हमारा ड्राइवर बताता जा रहा था कि इस जगह पर फंला फिल्म की शूटिंग हुई है, इस जगह उसकी। “आपने राजा-हिंदुस्तानी तो देखी ही होगी, उसमें करिश्मा जिस दुकान पर सामान खरीदती है, वो यही है...सनी देओल का वो गाना है ना, यारा-ओ-यारा, वो यही शूट हुआ था।” कयामत से कयामत में जो गाना है ना—गजब का है दिन—वो यहां शूट हुआ था।
ड्राइवर को ये भी पता था कि अजब प्रेम... की शूटिंग भी यही हुई थी। “जी हां मैडम, उस फिल्म (अजब प्रेम...) के लिए यहां इटली का सेट लगाया था फिल्मवालों ने।”
“तुम देखने जाते हो फिल्मों की शूटिंग,” मैने ड्राइवर से पूछा, तो वो बोला, “नहीं मैडम, हमे शूटिंग देखने का क्रेज नहीं है...वो तो टूरिस्ट-लोगों को होता है।” अब मुझे समझ में आया कि, आमिर खान को तमिलनाडु के लोग क्यों नहीं पहचानते है। याद है ना कुछ दिन पहले, अपनी फिल्म, थ्री-इडियट्स की प्रमोशन के दौरान जब वे तमिलनाडु के महाबलीपुरम पहुंचे, तो कोई उन्ही पहचान ही नहीं पाया था।
ये छोटा से पुल देख रहे है ना झील के उस पार, वो ‘कुछ-कुछ होता है’ में दिखाया था। “फिल्म में शाहरुख खान अपनी बेटी से मिलने के लिए समर-कैंप गया था...उसमें जिस पुल पर दौड़ कर जाता है, वो इस झील के ऊपर ही बनाया गया था।” लेकिन, फिल्म में तो समर-कैंप शिमला बताया था। “यही तो मैडम, फिल्मवालें बताते कोई और लोकेशन है और शूटिंग करने यहां आते है।” ड्राइवर के फिल्मी-ज्ञान पर हम भी मंत्रमुग्ध थे—वाकई वो ‘फिल्म-दीवाना’ था।
आपने ‘रोजा’ फिल्म तो देखी होगी ना? मेरे पति ने जबाब दिया, हां। उसमें जो आखिरी सीन था ना कश्मीर-वाला—जिसमें आंतकवादी हीरो को छोड़ते है, वो इसी डैम (कामराज सागर) पर ही तो शूट किया गया था। मणिरत्नम की कोई भी ऐसी फिल्म नहीं है जो यहां शूट ना की गई हो। रोजा का ‘छोटी सी आशा...’ इसी नीलगिरी-फॉल (वाटर फॉल) पर शूट किया गया था। त्रिदेव फिल्म में जो अमरीश पुरी का महल था, वो भी इसी नीलगिरी-नायगरा पर बनाया गया था।
छैया-छैया गाना था ना, ‘दिल से’ फिल्म में, वो भी यहां की टॉय-ट्रेन पर शूट हुआ था। हां, मैं एक बात बताना भूल गई कि लैंड-स्लाइड (चट्टानें खिसकने के कारण) की वजह से हम इस हैरीटेज ट्रेन में बैठने का आनंद नहीं ले सके। अभिषेक-ऐश्वर्या की आने वाली फिल्म, ‘रावण’ (डायरेक्टर, मणिरत्नम) की शूटिंग भी कुछ दिन पहले ही यहां खत्म हुई है।
ये जो दूर पहाड़ी पर सफेद रंग का होटल देख रहे है ना, ये मिथुन चक्रवर्ती का फाइव स्टार होटल है। जो भी हीरो, हीरोइन शूटिंग के लिए ऊटी आते है, वो इसी होटल में ठहरते है।
अंग्रेजों द्वारा बसाया गया ये हिल-स्टेशन बेहद खूबसूरत है। मद्रास स्टेट (आज का तमिलनाडु) की समर-कैपिटल थी ऊटी, जिसे 1821 में एक अंग्रेज अफसर, जॉन सुलिवन ने बसाया था। वैसे भारत में अधिकतर हिल स्टेशन अग्रेजों ने ही बसाए थे---कश्मीर को छोड़कर, जिसे मुगल शासकों ने बसाया था या यूं कहे कि अपने आराम की पंसदीदा जगह बनाया था।
ऊटी में और भी कई घूमने की जगह है। जैसे रोज-गार्डन, बोटेनिकल गार्डन, लैंडस्कैप, डोडाबेटा, आदि।
लेकिन सबसे मनमोहक है प्याकरा-लेक (झील)। कई किलोमीटर में फैली ये नेचुरल झील है---ऊटी लेक आर्टिफिशयल है। इस झील के बीच में एक छोटा सा आईलैंड (द्वीप) भी है। झील के चारों और चीड़ और दूसरे पहाड़ी पेड़ों के जंगल है। झील का पानी पूरी तरह हरा दिखाई देता है।
ऊटी से कुछ दूरी पर ही है मुडुमलाई टाइगर रिर्जव और बांदीपुर नेशनल पार्क (कर्नाटक)। नीलगिरी पहाड़ों की तलहटी में बनी ये दोनों वाइल्ड लाईफ सेंचुरी भी बेहद मनमोहक है। हां ये बात और है कि कई घंटों की सफारी के बाबजूद यहां कोई टाइगर दिखाई नहीं पड़ता—हिरन, सांभर और वाईसन जैसे जानवर जरुर दिख जाते हैं।
कभी मौका मिले तो आप भी जरुर घूम कर आइये ऊटी—पहाड़ों की रानी।

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