Friday, December 25, 2009

फिल्मी दीवाने पहुंचे 'फिल्म-दीवाने'


फिल्मों के शौकीन को कहते हैं फिल्म-दीवाने। हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा हो जिसे फिल्में देखना या उसके बारे में बात करना पसंद ना हो। लेकिन ‘फिल्म-दीवाने’ घूमने का भी कोई शौकीन हो सकता है, कभी सपने में भी नहीं सोचा था। सुनकर हैरान मत होइएगा, हमारे देश में एक ऐसी जगह भी है जिसे फिल्मी-दीवाने कहते है। जानना चाहेंगे क्यों, तो सुनिए!
हाल ही में, मैं और मेरे पति घूमने के लिए ऊटी गए थे। जबसे मैने फिल्में देखनी या यूं कहिए के फिल्मों के बारे में थोड़ा–बहुत जानना शुरु किया, तबसे ये नाम (ऊटी) मेरे जहन में अच्छे से बस गया था। सत्तर और अस्सी के दशक की ना जाने कितनी फिल्मों की शूटिंग इसी खूबसूरत हिल-स्टेशन पर हुई थी। लेकिन जैसे-जैसे दूसरे हिल-स्टेशन (नैनीताल, मसूरी इत्यादि) चर्चित होने लगे, शूटिंग वहां भी होने लगी। कश्मीर तो पहले से ही फिल्म-निर्माताओं की पसंदीदा जगह थी। इसके बाद यश चोपड़ा ने विदेशी हिल-स्टेशनों (स्विटजरलैंड, आस्ट्रिया आदि) को बॉलीवुड में पॉपुलर कर दिया। फिर एक ऐसा दौर आया, जब निर्माताओं ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की ऐसी लोकेशन पर फिल्म शूट करनी शुरु कर दी जहां कम ही लोगों की नजर पड़ी थी—जैसे डलहौजी में 1942 ए लव स्टोरी, सुभाष घई की ताल, और ऋतिक रोशन की कोई मिल गया। लेकिन हिंदी हो या साऊथ की रीजनल फिल्में, ऊटी एक ऐसी जगह है जिसका क्रेज निर्माताओं में कम नहीं हुआ। नौकरी से इस्तीफा देने के बाद, मैं अपने पति से ‘कही’ बाहर घूमकर आने के लिए जिद कर रही थी। मेरे पति नें मुझे कई च्वाइस दी—जैसे दार्जिलिंग, केरल, ओरछा। लेकिन मुझे ना जाने क्यों, ऐसा लगा कि हमें ऊटी घूमकर आना चाहिए। मेरी मम्मी अभी भी मुझे बताती है कि जब मैं 3 साल की थी, तब वे भी पूरे परिवार के साथ ऊटी घूमकर आई थी। लेकिन 3 साल की बच्ची को ऊटी का कुछ याद नहीं था—याद है तो सिर्फ बॉलीवुड फिल्में।
हमने तय कर लिया कि हम जाएंगे तो ऊटी ही। फिर क्या था होटल बुकिंग से लेकर ट्रेन टिकट तक सब बुक कर लिया। जाने से कुछ दिन पहले ही हम दोनों (पति और मैं) एक बार फिर फिल्म देखने चल दिए—हम दोनों ही हिंदी फिल्म देखने के बड़े शौकीन है या यूं कहिए की फिल्म-दीवानें हैं। फिल्म थी ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’— ‘वेक अप सिड’ देखने के बाद से ही मुझे रणबीर कपूर की एक्टिंग अच्छी लगने लगी थी। जैसे ही फिल्म शुरु होने वाली थी, मेरे पति ने मुझे बताया कि इस फिल्म की शूटिंग ऊटी में हुई है।
दरअसल, फिल्म के शुरुआत में ही प्रोड्यूसर ने ऊटी की लोकेशन लिखी थी और वहां के होटलों का आभार प्रकट किया था। ये सुनते ही मैं सीट से मानों उछल ही गई। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा—मुझे इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि ‘अजब प्रेम...’ की शूटिंग ऊटी में हुई थी।
ऊटी जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि जाने से एक दिन पहले ही मुझे बुखार चढ़ गया। एक बार तो ऐसा लगा कि ऊटी घूमने का प्रोग्राम कैंसिल कर दिया जाए। लेकिन मैने किसी तरह मन पक्का किया और डॉक्टर से एक हफ्ते की दवाई लेकर हम ऊटी के लिए चल दिए। केरल एक्सप्रेस में दो दिन मैंने सोते हुए ही बीता दिए। मेरी तबीयत खराब होने की वजह से पति का मूड भी अपसेट हो गया। दरअसल, ट्रेन से जाने का विचार उन्हीं का था। विदेशी पर्यटकों की तरह ही हमें भी देश के अलग-अलग हिस्सों को ट्रेन से ही घूमना ज्यादा पंसद है। हवाई सफर से विभिन्न-विभिन्न प्रांतों के बारे में जानने का पता ही नहीं चलता। ट्रेन कई छोटे-बड़े शहरों और गांवों से होती हुई करीब आधा दर्जन राज्यों से होकर गुजरती है। ऐसे में वहां के लोग और मिट्टी को करीब से अच्छा समझा जा सकता है। लेकिन ट्रेन के वो दो दिन मैने कैसे काटे ये, मैं ही जानती हूं।
सुबह के करीब पांच बजे हमारी ट्रेन कोयम्बटूर पहुंच चुकी थी। वहां से हम टैक्सी से चल दिए ऊटी की ओर। केरल और कनार्टक सीमा से लगे नीलगिरी जिले में पड़ता है ऊटी (या ऊडागामंडलम)। चाय और कॉफी के बागानों के लिए जाने-जाना वाला ये हिल स्टेशन कोयम्बटूर से करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर है। जैसे-जैसे हमारी टैक्सी, चाय बागानों से होती हुई सुंदर और मनोरम पहाड़ी रास्तों से गुजर रही थी, वैसे-वैसे मुझ लग रहा था कि मेरी तबीयत कुछ अच्छी होती जा रही है। जैसे ही मैने ये बात पति को बताई तो, वे तपाक से बोल उठे, “तुम तो पुरानी हिंदी फिल्मों के उस सीन की तरह बात कर रही हो, जैसे जब कोई व्यक्ति बीमार होता था, तो फिल्म में डॉक्टर ऊटी या दार्जिलिंग जाने की सलाह देता था।”
उनकी बात सुनकर, मैं खिलखिलाकर हंस पड़ी—दो दिन बाद मैं पहली बार हंसी थी शायद।
खैर, मैं बता तो रही थी ‘फिल्म-दीवाने’ की, लेकिन बातों ही बातों में पूरा यात्रा वृतांत बता दिया।
ऊटी में अपने होटल (दाई तरफ फोटो में) पहुचंते ही मेरा मन और खिल उठा। एक तो होटल इतना शानदार था, दूसरा उसके ठीक सामने ही ऊटी-झील थी। होटल की कॉटेज से लेक (झील) का नजारा देखते ही बनता था।
अगले दिन हम होटल के रिसेप्शन पर ऊटी के बारे में घूमने की जानकारी लेने पहुंचे, तो मैनेजर ने कहा, “आप ‘फिल्म-दीवाने’ घूमना पसंद करेंगे ?” हमने एक-दूसरे को देखा और मैनेजर से पूछा, “ये ‘फिल्म-दीवाने’ क्या बला है?” मैनेजर ने जबाब दिया कि यहां (ऊटी) जितनी भी घूमने की जगह है उसे ‘फिल्म-दीवाने’ बोला जाता है। ऐसा क्यों है तो उसने बताया कि ऊटी में इतनी बड़ी तादाद में फिल्मों की शूटिंग होती है कि इन पर्यटक स्थलों को ‘फिल्म-दीवाने’ का नाम दे दिया गया है।
एक गाइड –नुमा टैक्सी ड्राइवर को साथ लेकर हम चल दिए ‘फिल्म-दीवाने’ घूमने। जैसे-जैसे टैक्सी ऊटी के पर्यटक स्थलों पर जा रही थी, हमारा ड्राइवर बताता जा रहा था कि इस जगह पर फंला फिल्म की शूटिंग हुई है, इस जगह उसकी। “आपने राजा-हिंदुस्तानी तो देखी ही होगी, उसमें करिश्मा जिस दुकान पर सामान खरीदती है, वो यही है...सनी देओल का वो गाना है ना, यारा-ओ-यारा, वो यही शूट हुआ था।” कयामत से कयामत में जो गाना है ना—गजब का है दिन—वो यहां शूट हुआ था।
ड्राइवर को ये भी पता था कि अजब प्रेम... की शूटिंग भी यही हुई थी। “जी हां मैडम, उस फिल्म (अजब प्रेम...) के लिए यहां इटली का सेट लगाया था फिल्मवालों ने।”
“तुम देखने जाते हो फिल्मों की शूटिंग,” मैने ड्राइवर से पूछा, तो वो बोला, “नहीं मैडम, हमे शूटिंग देखने का क्रेज नहीं है...वो तो टूरिस्ट-लोगों को होता है।” अब मुझे समझ में आया कि, आमिर खान को तमिलनाडु के लोग क्यों नहीं पहचानते है। याद है ना कुछ दिन पहले, अपनी फिल्म, थ्री-इडियट्स की प्रमोशन के दौरान जब वे तमिलनाडु के महाबलीपुरम पहुंचे, तो कोई उन्ही पहचान ही नहीं पाया था।
ये छोटा से पुल देख रहे है ना झील के उस पार, वो ‘कुछ-कुछ होता है’ में दिखाया था। “फिल्म में शाहरुख खान अपनी बेटी से मिलने के लिए समर-कैंप गया था...उसमें जिस पुल पर दौड़ कर जाता है, वो इस झील के ऊपर ही बनाया गया था।” लेकिन, फिल्म में तो समर-कैंप शिमला बताया था। “यही तो मैडम, फिल्मवालें बताते कोई और लोकेशन है और शूटिंग करने यहां आते है।” ड्राइवर के फिल्मी-ज्ञान पर हम भी मंत्रमुग्ध थे—वाकई वो ‘फिल्म-दीवाना’ था।
आपने ‘रोजा’ फिल्म तो देखी होगी ना? मेरे पति ने जबाब दिया, हां। उसमें जो आखिरी सीन था ना कश्मीर-वाला—जिसमें आंतकवादी हीरो को छोड़ते है, वो इसी डैम (कामराज सागर) पर ही तो शूट किया गया था। मणिरत्नम की कोई भी ऐसी फिल्म नहीं है जो यहां शूट ना की गई हो। रोजा का ‘छोटी सी आशा...’ इसी नीलगिरी-फॉल (वाटर फॉल) पर शूट किया गया था। त्रिदेव फिल्म में जो अमरीश पुरी का महल था, वो भी इसी नीलगिरी-नायगरा पर बनाया गया था।
छैया-छैया गाना था ना, ‘दिल से’ फिल्म में, वो भी यहां की टॉय-ट्रेन पर शूट हुआ था। हां, मैं एक बात बताना भूल गई कि लैंड-स्लाइड (चट्टानें खिसकने के कारण) की वजह से हम इस हैरीटेज ट्रेन में बैठने का आनंद नहीं ले सके। अभिषेक-ऐश्वर्या की आने वाली फिल्म, ‘रावण’ (डायरेक्टर, मणिरत्नम) की शूटिंग भी कुछ दिन पहले ही यहां खत्म हुई है।
ये जो दूर पहाड़ी पर सफेद रंग का होटल देख रहे है ना, ये मिथुन चक्रवर्ती का फाइव स्टार होटल है। जो भी हीरो, हीरोइन शूटिंग के लिए ऊटी आते है, वो इसी होटल में ठहरते है।
अंग्रेजों द्वारा बसाया गया ये हिल-स्टेशन बेहद खूबसूरत है। मद्रास स्टेट (आज का तमिलनाडु) की समर-कैपिटल थी ऊटी, जिसे 1821 में एक अंग्रेज अफसर, जॉन सुलिवन ने बसाया था। वैसे भारत में अधिकतर हिल स्टेशन अग्रेजों ने ही बसाए थे---कश्मीर को छोड़कर, जिसे मुगल शासकों ने बसाया था या यूं कहे कि अपने आराम की पंसदीदा जगह बनाया था।
ऊटी में और भी कई घूमने की जगह है। जैसे रोज-गार्डन, बोटेनिकल गार्डन, लैंडस्कैप, डोडाबेटा, आदि।
लेकिन सबसे मनमोहक है प्याकरा-लेक (झील)। कई किलोमीटर में फैली ये नेचुरल झील है---ऊटी लेक आर्टिफिशयल है। इस झील के बीच में एक छोटा सा आईलैंड (द्वीप) भी है। झील के चारों और चीड़ और दूसरे पहाड़ी पेड़ों के जंगल है। झील का पानी पूरी तरह हरा दिखाई देता है।
ऊटी से कुछ दूरी पर ही है मुडुमलाई टाइगर रिर्जव और बांदीपुर नेशनल पार्क (कर्नाटक)। नीलगिरी पहाड़ों की तलहटी में बनी ये दोनों वाइल्ड लाईफ सेंचुरी भी बेहद मनमोहक है। हां ये बात और है कि कई घंटों की सफारी के बाबजूद यहां कोई टाइगर दिखाई नहीं पड़ता—हिरन, सांभर और वाईसन जैसे जानवर जरुर दिख जाते हैं।
कभी मौका मिले तो आप भी जरुर घूम कर आइये ऊटी—पहाड़ों की रानी।

Wednesday, November 25, 2009

सलाम मुंबई !

...नरीमन हाउस पर लगातार फायरिंग, जवाबी फायरिंग और धमाके एक बार फिर सुबह होने के साथ साथ तेज हो चुके थे। 27 नवम्बर 2008 की शाम के करीब 4 बजे तक ये सिलसिला चलता रहा। मैं सबकुछ साफ साफ देख भी पा रही थी। हमारे एनएसजी कमांडो की दिलेरी और बहादुरी। सेना और मुंबई पुलिस वायरलेस पर अपने सीनियर्स को नरीमन हाउस में चल रही जंग का बयान कर रहे थे। दबी आवाज में वो ये भी बता रहे थे कि आतंकवादियों का खात्मा कभी भी किया जा सकता है। दबी आवाज इसलिए ताकि मीडिया तक उनकी बात ना पंहुच पाए। तभी एकाएक तेज फायरिंग शुरू हो गई और लगातार कई धमाके भी हुए। मैने भी पानी की टंकी की आड़ से देखने की कोशिश की तो ये क्या बिलकुल किसी हॉलीवुड मूवी की तरह नरीमन हाउस का एक हिस्सा उड़ता दिखाई दिया। साथ ही घर के अंदर आतंकवादियों और कमांडो को फायरिंग करते देखा जा सकता था। ये सिलसिला ज्यादा देर तक नहीं चला क्योंकि आतंकवादियों पर हमारे जवानों ने काबू पा लिया था। लेकिन इस खबर की पुष्टि करना जल्दबाजी थी। रात करीब साढ़े 8 बजे भारतमाता के जयकारों के बीच मीडिया को बताया गया कि नरीमन हाउस के आतंकवादियों को ढेर कर दिया गया है। लेकिन अफसोस ये था कि बंधक लोगों की नहीं बचाया जा सका। ठीक इसी समय ट्राइडेंट पर रिपोर्टिंग कर रहे साथी ने मेरा हालचाल पूछने के लिए फोन किया। उसने बताया कि ट्राइडेंट पर फंसे सारे बंधको को छुड़ा लिया गया है और बस वहां का ऑपरेशन खत्म ही होने वाला है। मुंबई हमले की कवरेज करना मानों हमारे लिए भी किसी जंग से कम नहीं था। आपरेशन खत्म हुआ तो मुंबई ऑफिस से फोन आया, “आपका खाना और पानी ताज होटल पर खड़ी ओबी में रखवा दिया है। आकर खा लीजिए।” तुरंत एक दूसरा रिपोर्टर मेरी जगह कवरेज के लिए आ गया और मैं ताज होटल के लिए निकल पड़ी। वहां मुंबई ब्यूरो के कई रिपोर्टर और सीनियर मौजूद थे। हम सबने मिलकर दिनभर की सारी बातें की। अपने अपने अनुभव शेयर किए। चूंकि हम टीवी नहीं देख पा रहे थे लिहाजा आपस में बातें कर रहे थे कि पता नहीं फलां वॉकथ्रू और टिकटैक चला या नहीं। (रिपोर्टर को हमेशा इस बात का मलाल रहता है कि आउटपुट ने उसकी मेहनत को चलाया भी या नही)। अब ताज होटल पर भी शांति लग रही थी। शायद तूफान से पहले की खामोशी.... हम खाना खा ही रहे थे कि लगातार कई धमाके हुए। ये बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि हमारे कमांडो कर रहे हैं या आतंकवादी। जल्दी जल्दी सबने खाना खाया और फिर अपनी ड्यूटी पर लग गए। रात के साढ़े 10 बज चुके थे। अब मैं भी ताज होटल पर ही कवरेज के लिए रूक गई। फिर वही ब्लैकआउट और कैमरे के पीछे बैठे रिपोर्टर। रात में 11 बजे से लेकर तकरीबन 3 बजे तक कोई भी धमाके की आवाज नहीं आई.... ना ही आतंकवादियों की तरफ से हैंडग्रेनेड फेंके गए। मेरे साथी कैमरामैन ने कैमरे को जूम इन करके उस जगह पर छोड़ दिया जहां पर आंतकवादियों के छिपे होने की आशंका थी। ताज के उसी कमरे की लाइट जल रही थी। अगर ध्यान से देखने पर खिड़की पर लगे पर्दे को हटाते हुए आतंकवादी के हाथ को देखा जा सकता था। एनएसजी कमांडो लगातार अंधेरे का फायदा उठाते हुए होटल के अंदर घुस रहे थे। कुछ मूवमेंट नहीं थी, ना ही कोई गोली की आवाज सुनाई दे रही थी। दो दिन सोई नहीं थी लिहाजा वहीं बैठे बैठे मेरी झपकी लग गई। लेकिन एक बार फिर गोलियों की आवाज और धमाकों से मेरी नींद टूट गई। टाइम देखा तो देर रात साढ़े तीन बज रहे थे। तभी मुंबई पुलिस का एक अफसर मीडिया की तरफ आता दिखाई दिया। उसने शोर मचाते हुए कहा.... “get down, get down”—यानि जमीन पर लेट जाओ। शोर से कुछ समझ में नहीं आया बस हम सब रिपोर्टर और कैमरामैन नीचे झुक गए। धमाके लगातार तेज ही हो रहे थे... ऐसा लग रहा था कि ऑपरेशन अंतिम चरण पर है। तेज धमाको के बीच 29 नवंबर के सूरज ने दस्तक दी। सुबह के करीब 6 बज चुके थे। अभी मैं नींद में ही थी कि फोनो के लिए एक बार फिर ऑफिस से फोन आ गया था। बुलेटिन अभी चल ही रहा था कि कमांडो मूवमेंट बहुत तेज हो चुका था। ताज के उस हिस्से पर आग लगा दी गई थी जहां पर आतंकवादी छिपे हुए थे। अबतक मेरी नींद काफूर हो चुकी थी। खूबसूरती के लिए जाना जाने वाला ताज धू धू करके जल रहा था। सुबह के तकरीबन सवा सात हुए थे तभी ताज के एक खिड़की से आतंकवादी गिरता हुआ दिखाई दिया। हमारे कैमरामैन ने उस गिरते हुए आतंकवादी कि तस्वीर कैद कर ली थी। तुरंत ऑफिस में खबर ब्रेक की कि बिल्डिंग से आतंकवादी गिरा। तुरंत उसके विजुअल लेकर ओबी की तरफ बढ़ी। अबतक एनएसजी और मुंबई पुलिस के बड़े अफसर ताज होटल पर इक्ट्ठा हो चुके थे। फायर ब्रिगेड की गाड़ियां ताज की आग बुझा रही थीं। अबतक सब समझ चुके थे कि ताज के आतंकी ढेर कर दिए गए हैं। फिर क्या था.... मीडिया ने भी पुलिसिया घेरा तोड़ा, रस्सी फांदी और सीधे एनएसजी के चीफ जे के दत्ता के पास बाइट लेने पंहुच गए। मैनें भी ऑपरेशन खत्म होने का वॉकथ्रू किया। तभी एक कमांडो ने पूछा मैम आपके फोन में ब्लूटूथ है। मैने कहा क्यो? मैम आतंकवादी की तस्वीर है मेरे पास। अंदर की भी कुछ फोटो है। बस फिर क्या था। बैठे बैठे ही मुझे ‘एक्सक्लूसिव’ तस्वीरें मिल गई थी। मैंने फटाफट वो पिक्चर्स अपने फोन में ली और एक बार फिर ओबी में फोटो भेजने के लिए चल दी। इस बीच मेरे घरवालों के भी लगातार फोन आ रहे थे, अपनी ख्याल रखने के और बधाई के भी। ऑपरेशन खत्म हो गया। सुबह के साढ़े 10 बज चुके थे। कमाडों ने ताज होटल पर तिरंगा फहराया। थकान बहुत थी लेकिन कमांडो की खुशी के आगे शायद थकान और नींद का अहसास ही नहीं हो रहा था। मेरा काम अभी भी खत्म नहीं हुआ था। अब बारी थी। ऑपरेशन खत्म होने के बाद की मूवमेंट को कवर करना और ताज होटल के अंदर जाने की कोशिश करना। एफबीआई, यूएस एंबेसी के लोग और रतन टाटा ताज पर पंहुच चुके थे। अब मीडिया भी ताज के पोर्च तक पंहुच चुकी थी। लगातार एबुलंस आती जा रही थी...ताज से एक एक करके शव निकाले जा रहे थे। उनकी शिनाख्त में अफसर लगे हुए थे। कोई भी बंधक नहीं बच सका था सिवाए होटल के एक स्टाफ के। उसको भी इस बात का बिलकुल यकीन नहीं हो पा रहा था कि वो बच गया है। वो स्तब्ध था, वो ना हंस पा रहा था ना ही बोल पा रहा था। जैसे तैसे उसे पुलिसवालों ने संभाला और मीडिया से दूर रखा। हालांकि मैं ताज के अंदर नहीं जा पाई (किसी को इजाजत नहीं थी) लेकिन चकमा देकर मैं होटल के एक रेस्टोरेंट तक जरूर पंहुची। जहां आतंकियों ने तबाही मचाई थी। वहीं से मैं उस जगह को भी देख पा रही थी, जहां से बंधको ने चादर गिरा कर खुद को आतंकियो के कहर से छुड़ाया था। मैनें जल्दी जल्दी एक वॉकथ्रू किया क्योंकि कभी भी वहां पुलिस पंहुच कर मुझे बाहर कर सकती थी। शाम के 8 बज चुके थे। अब हिम्मत जवाब दे गई। मैने बॉस से गेस्टहाउस जाने की इजाजत मांगी। बॉस ने इजाजत दी और मैं तुरंत गेस्ट हाउस के लिए निकल गई। ड्राइवर ने बताया कि स्पॉट से गेस्टहाउस जाने में करीब 2 घंटे लगेंगे।
रास्तेभर मै इन धमाकों के बारे में ही सोचती रही। काम खत्म होने के बाद भी उस खौफ को महसूस कर पा रही थी। साथ ही मन में कई सवाल कौंध रहे थे कि आखिर हमारी पुलिस क्यों नहीं मुकाबला कर पाई दस आतंकवादियों का, क्यों जरुरत पड़ी एनएसजी और सेना तक की? क्यों मैरीन कमांडो को भी कूदना पड़ा महज दस आतंकवादियों के खात्मे के लिए। क्यों हमें करकरे,काम्टे, सालस्कर और, उन्नीकृष्णन जैसे वीरों को खोना पड़ा। क्यों महज दस आंतकवादियों(जिन्होंने जैसी भी कमांडो ट्रैनिंग ली हो) ने पूरे देश को 62 घंटे तक छकाए रखा। क्यों ऐसा लगने लगा कि दस आंतकवादियों ने नहीं बल्कि किसी शक्तिशाली देश ने हमारे मुल्क पर चौतरफा हमला कर दिया है। क्या ये देश के लिए जीत थी या फिर एक शर्मनाक हार?

Tuesday, November 24, 2009

ये है मुंबई मेरी जान


रात के करीब 10 बजे थे। तारीख थी, 26 नवंबर 2008। उस दिन मैं अपनी (क्राइम) स्टोरी एडिट (ऑन एयर होने को तैयार) करवा नोएडा स्थित ऑफिस (न्यूज 24) से घर के लिए निकली ही थी कि चैनल के ही एक एंकर का, फोन आया । उसने कहा नलिनी जी रास्ते में मुझे भी ड्रॉप कर दीजिएगा। जैसे ही हम ऑफिस से निकलने वाले थे तभी स्टार न्यूज और आईबीएन 7 पर ब्रेकिंग हुई। ब्रेकिंग की पट्टी चलते ही मै ये देखने के लिए उत्सुक हुई कि क्या ब्रेकिंग है।... खबर थी... मुंबई के पॉश, कोलाबा में गोलीबारी...दूसरा चैनल ये ब्रेक कर रहा था कि कोलाबा के एक पब में गोलियां चली, दो गुटों के बीच लड़ाई। .... एकाएक मेरे मुंह से निकला.... आज की मेहनत बेकार गई। क्राइम बुलेटिन में जो दिल्ली की स्टोरी जाने वाली थी ड्रॉप ही समझो! अब तो मुंबई के ही रिपोर्टर का फोनो चलेगा। भई पॉश इलाके में जो गोलीबारी हुई है। खैर मैंने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और घर के लिए निकल गई। घर पंहुची। न्यूज चैनल में काम करके न्यूज देखने का मानो चस्का लग जाता है। इसलिए, अगर आप घर में टीवी के सामने बैठे हो या नहीं, पर कोई ना कोई न्यूज चैनल तेज आवाज में चलता ही रहता है। खासकर तब, जब पति- पत्नी दोनों ही न्यूज चैनल में काम कर रहे हो--और दोनों ही क्राइम रिपोर्टर हों। अचानक मेरे कानों में ये खबर सुनाई दी.... मुंबई में आतंकवादी हमले का शक। फिर क्या था.... मैं टीवी के सामने ही बैठ गई। खबर लगातार बड़ी होती जा रही थी। आईबीएन 7 और एनडीटीवी दोनों पर विजुअल भी ब्रेक हो चुके थे। मैं देख ही रही थी तभी एक टैक्सी में धमाके की खबर ब्रेक हो गई। ताज में गोलीबारी की खबर। छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर गोलीबारी की खबर..... सभी चैनल के मुंबई के रिपोर्ट्स के वॉक थ्रू। शायद उन संवाददाताओं को बिलकुल अंदाजा नहीं था कि मुंबई देश के सबसे बड़े आतंकवादी हमले का गवाह बनने जा रहा है। ये घटना तब हुई जब लगभग रिपोर्टर्स अपने घर के लिए रवाना होते है तो कोई रिपोर्टर अपना बैग लेकर ही वॉकथ्रू कर रहा था तो कोई फोनो में ये बोल रहा था कि बस वो अभी स्पॉट पर पंहुचने वाला ही है। मैं खुद को टीवी के सामने से बिलकुल नहीं हटा पा रही थी। देखते देखते साढ़े 12 बज गए। अबतक बिलकुल साफ हो चुका था कि आतंकवादियों ने होटल ताज, ट्राइडेंट और नरीमन हाउस को अपने काबू कर लिया है और सैकड़ो़ लोगों को अपने बंधक बना लिया है। कभी कामा हॉस्पिटल में आतंकवादियों के घुसने की खबर तो कभी पुलिस जिप्सी पर आंतकवादियों के भागने की खबर। मैं मुंबई की तबाही देख रही थी। साथ में खयाल इस बात का भी आ रहा था कि उन परिवारों का क्या हाल होगा जिनके लोग बंधक बने हैं। मुंबई पुलिस की बेचैनी भी साफ नजर आ रही थी। किसी ने भी ये कल्पना नहीं की थी। हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालस्कर के शहीद होने पर एक बात तो बिल्कुल साफ हो चुकी थी कि मुंबई सरकार और पुलिस इस तरह के किसी हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। देश की आर्थिक राजधानी के ये हालत देखते देखते कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला। 27 नवंबर की सुबह हर चैनल के धुरधंर रिपोर्टर कवरेज के हर मोर्चे पर तैयार थे। सब अपनी अपनी तरह से इस बड़े हमले की व्याख्या कर रहे थे। कईयों ने तो कयास ही लगाने शुरू कर दिए कि ये हमला किसने करवाया है। अब सब चैनल पर अजमल आमिर कसाब की भी नीले बैग वाली तस्वीरें देखी जा सकती थी। सुबह 10 बजे मैं ऑफिस पंहुची तो देखा दिल्ली ब्यूरो के सारे साथी रिपोर्टर्स सुकून से बैठे थे और चैनल के सारे बॉस असाइनंमेंट पर इकट्ठा हैं। कई बार उनके चिल्लाने की भी आवाजें आ रही थी..... कि फलां चैनल पर ये विजुअल चल रहा है अपने रिपोर्टर ने वहां से वॉकथ्रू किया या नहीं? तो कभी टाइम्स नाउ के विजुअल अच्छे है सौजन्य के साथ काट लो। दिल्ली ब्यूरो के रिपोर्टर्स की बल्ले बल्ले थी क्योंकि अब जबतक आतंकवादी मारे नहीं जाते तबतक तो दिल्ली का कुछ टीवी पर चलेगा ही नहीं। कुछ रिपोर्टर्स जो कि शायद कभी न्यूज पेपर नहीं पढ़ते होंगे अखबार पढ़ते दिखे। मैने भी चुटकी लेते हुए कहा कि आज बॉस व्यस्त है हैडलाइन नहीं पूछेंगे। लेकिन जब गौर से पेपर की ओर देखा तो जनाब मूवी के टाइमिंग्स देख रहे थे। चूंकि मैं क्राइम टीम से जुड़ी हुई थी लिहाजा क्राइम टीम के लोगों को कुछ काम में लगा दिया गया। मुंबई हमले को लेकर मैं भी बहुत एक्साइटेड थी या यूं कहे कि मेरे अंदर का रिपोर्टर बोल रहा था कि, ‘मुझे भी वहां होना चाहिए’। अभी तक तो सिर्फ जम्मू कश्मीर में ऐसे आतंकवादियों को बंधक बनाते सुना था लेकिन मुंबई। कभी सोचा भी ना था। मैं मन ही मन ये सोच रही थी कि काश मैं भी ऐसी बड़ी कवरेज के लिए जाऊं। हालांकि पहले भी मैं कई कवरेज के लिए बाहर गई थी लेकिन आतंकवादियों को लाइव कवर करना.... ये एक रिपोर्टर का ‘लालच’ था। मैं मन ही मन सोच रही थी, कि भगवान ने मेरी सुन ली.... असाइन्मेंट से कॉल आया और बताया गया कि मेरी मुंबई की फ्लाइट है। दिल्ली से मुंबई हमले की कवरेज के लिए मेरे अलावा एक और रिपोर्टर जा रहा था। 27 नवंबर को मैं मुंबई पहुंच गई। पहले ताज होटल और फिर नरीमन हाउस। नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया का जमावड़ा था। गोलियों और धमाकों की आवाजें जो अभी तक टीवी पर सुन रही थी अब मैं खुद सुन रही थी। अब मैं मुंबई की तबाही अपनी आंखों से देख पा रही थी। लोगों की वो दहशत और खौफ महसूस कर पा रही थी। स्पॉट पर पंहुचते ही एक ऐसा परिवार मिल गया जिसके सदस्य ताज में फंसे थे। मैने जैसे ही माइक उनके आगे बढ़ाया उनके रूंदन और बेबसी ने मेरी भी आंखो में पानी भर दिया। एक सदस्य तो बिलकुल मुझसे ही अपने बंधक सदस्य को छुड़ाने की प्रार्थना करने लगा। अभी तक मैं शायद प्रोफेशनल थी लेकिन अब मुझे उन परिवार की पीड़ा का अहसास होने लगा था। रात के 11 बज चुके थे। मैं ताज होटल पर ही डटी हुई थी। लगातार दिल्ली ऑफिस से फोन आ रहे थे कि ताज होटल में ऑपरेशन खत्म हो चुका है। क्योंकि किसी दूसरे चैनल ने ऑपरेशन खत्म होने की बात चला दी थी। लेकिन ये हकीकत नहीं थी। अभी भी आतंकवादियों की तरफ से लगातार गोलीबारी चल रही थी। ऑफिस को यकीन दिलाने के लिए मैने एक छोटा सा वॉकथ्रू (रिपोर्टर का मौके से हाले-बयान) कर दिया। मुंबई पुलिस की तरफ से मीडिय़ा को रोकने के लिए एक रस्सी लगा दी गई थी और हमसे कैमरा लाइट ना जलाने की अपील की गई। मुंबई पुलिस ब्लैकआउट कराना चाहती थी ताकि आतंकवादी ये पता ना लगा पाए कि बाहर क्या हो रहा है—और एनएसजी कमांडो होटल के अंदर जा सके। सभी ने पुलिस का सहयोग किया। जब एनएसजी कमांडो ने अपनी पोजीशन ली तो ऐसा लगा मानों ऑपरेशन बस कुछ देर का बाकी बचा है। मेरे साथ दो कैमरामैन थे तो एक को ताज पर छोड़कर मैं नरीमन हाउस चली गई। ताज से नरीमन हाउस की दूरी लगभग 15 मिनट में तय की जा सकती थी। नरीमन हाउस में भी वही मंजर। आसपास बिल्कुल छावनी में तब्दील था। देर रात 3 बज रहे थे... अब लगातार 3 ट्रक में भरकर सेना के लोग भी पंहुच गए थे। सब की जुबान पर बस भारत माता की जयकार थी। अचानक एक सुर में ये आवाज सुनकर मैं भी रोमांचिंत हो रही थी। जयकार लगाना एक रणनीति का हिस्सा था ताकि नरीमन हाउस में बैठे आतंकियों के हौसले पस्त पड़ जाए। सेना के सभी लोगों ने पूरे इलाके की गलियों कों घेर लिया और नरीमन हाउस के आसपास की बिल्डिंग में भी फंसे लोगों को निकालना शुरू कर दिया। आतंकवादियों की ओर से चल रही गोलियों की आवाज तो रूक रूक कर आ ही रही थी। तभी एक एंबुलेंस आती दिखाई दी.... मुझे ऐसा लगा कि शायद आतंकवादी मारा गया। लेकिन पता चला कि नरीमन हाउस के पास की बिल्डिंग के एक बुजुर्ग ने डर की वजह से छलांग लगा कर खुदकुशी कर ली। अब सुबह के 6 बज चुके थे और तारीख हो चुकी थी 28 नवंबर। मैं नरीमन हाउस पर ही थी। सुबह के बुलेटिन में मैं फोनो दे रही थी तभी नरीमन बिल्डिंग के ऊपर हेलीकॉप्टर मंडराते नजर आए। मैनें एक आंटी जिनका घर नरीमन हाउस से लगभग 50 मीटर की दूरी पर था, उनसे उनकी घर की बालकनी में जाने की इजाजत मांगी। आंटी मराठी थी और उन्हें हिंदी बिलकुल नहीं आती थी। किसी तरह मैं उन्हे अपनी बात समझाने में कामयाब हुई और उन्होंने इजाजत दे दी। बालकनी से अब सबकुछ साफ नजर आ रहा था। लेकिन एहतियातन हमने आंटी की पानी की टंकी से आड़ ले रखी थी। अब मैं नरीमन हाउस के ऊपर मंडरा रहे हैलीकॉप्टर को साफ देख पा रही थी। मेरे कैमरामैन भी जान जोखिम में डालकर वो शूट कर रहे थे। अभीतक ये साफ नहीं हो पाया था कि आखिर ये हैलिकॉप्टर क्या कर रहा है। तभी एक रस्सी फेंकी गई और उससे उतरता काले कपड़ों में एक कमांडो दिखाई दिया। मैने तुरंत दिल्ली ऑफिस में फोन करके ये नरीमन हाउस में एनएसजी कंमाडो उतरे खबर ब्रेक की। एक के बाद एक कई एनएसजी कमांडो हैलीकॉप्टर से उतरते गए। नरीमन बिल्डिग की पूरी छत पर अब एनएसजी की कंट्रोल हो गया था। इस खबर को लेकर बाद में सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से चिंता जाहिर की गई। दरअसल, हमारे लिए वहां होने वाली एक-एक मूवमेंट ब्रैकिंग खबर थी—चैनल के लिए भी। लेकिन शायद सीमा पार बैठे आतंकियों के आका टी.वी पर ब्रैकिंग न्यूज देख-देख कर अपनी रणनीति तैयार कर रहे थे। वे सैटेलाइट फोन के जरिए, होटल (और नरीमन हाउस) में मौजूद आतंकवादियों को दिशा-निर्देश दे रहे थे। इस हमले के बाद इस तरह के हमले के दौरान मीडिया पर लगाम कसने के कवायद शुरु हो गई है। ऐसे में एक सवाल का सामना पत्रकार को करना पड़ता है। हमें पढ़ाया जाता है कि पत्रकार स्वतंत्र होता है। वो ना तो सरकार का माऊथपीस होता है और ना ही आंतकियों का खैरख्वाह। हम तो अपना काम कर रहे हैं, अपना कर्म कर रहे हैं। रिपोर्टर स्पॉट से रिपोर्टिंग कर रहा है। महाभारत के संजय की तरह मुंबई हमले का बयान पूरी दुनिया को दे रहे हैं। फिर उसमें कौरवों की मात हो या फिर अभिमन्यु मौत के काल में समाए, क्या फर्क पड़ता है? हमें हार और जीत दोनों ही बयां करनी हैं। अगर संजय ने अभिमन्यु की मौत का सच, धृतराष्ट्र से छिपाया होता तो, क्या अपने नालायक बेटों की करतूत का उसे कभी पता चला पाता। अब सवाल उठता है कि क्या एक देश की सुरक्षा से ऊपर होता है पत्रकार? ये एक बहस का मुद्दा जरुर है। लेकिन इस हमले के बाद ये जरूर हुआ है कि कुछ न्यूज चैनल और पत्रकारों ने खुद पर ‘पाबंदी’ लगानी शुरु कर दी है। लेकिन क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां ऐसी रणनीति से आंतकियों को हमला करे कि न्यूज चैनल (अखबार भी) पर चलने वाली खबरों से भी आंतकवादियों को कोई मदद ना मिल सके। रिपोर्टर को सिर्फ अपनी सुरक्षा (और खुफिया) एजेंसिया का गुणगान हीं नहीं करते रहना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो प्रेस (यानि मीडिया) के ‘वॉचडॉग’ वाला रोल ही खत्म हो जाएगा। (....to be continued)

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