Wednesday, April 21, 2010

सर, प्लीज बाइट दे दीजिए...


अफसरों द्वारा की गई रिश्वतखोरी का स्टिंग अगर न्यूज चैनल पर चल सकता है तो खुद के रिपोर्टर का स्टिंग क्यों नहीं चल सकता। प्रबंधन उन्हें क्यों नहीं एक्सपोज करना चाहता। क्यों चुपचाप उसे चैनल से निकाल दिया जाता है या फिर पूरा मामला ही गुपचुप तरीके से खत्म कर दिया जाता है। यकीन करिए अगर चैनल पर खुद के ही रिपोर्टर के गलत काम को दिखाया जाए तो आम लोगों की चैनल के प्रति विश्वसनीयता ही बढे़गी।
आजकल अखबारों और न्यूज चैनल की सुर्खियां हैं आईपीएल और बस .... आईपीएल विवाद। शशि थरूर और ललित मोदी ने ट्विटर पर ट्विट क्या किया एक की गद्दी छिन चुकी है तो दूसरे की छिनने की कगार पर है। भई ताजा मामला ये है कि ललित मोदी के बाउंसर्स ने मुंबई के कुछ पत्रकारों की जमकर पिटाई कर दी। रिपोर्टर भी बॉलीवुड यानि मुंबई के थे तो हीरोगीरी क्यों ना दिखाते उनके हाथ में भी जो आया उससे ललित मोदी के बाउंसर्स को दे मारा।
लेकिन सवाल ये है कि क्या अब एक पत्रकार की ये औकात हो गई है कि एक बाइट (VERSION) लेने के लिए थप्पड़ सहना होगा। ये सिर्फ मुंबई की ही बात नहीं है राजधानी दिल्ली में भी पत्रकारों के साथ बदसलूकी के कई मामले सामने आए हैं। चाहे वो कोई पीड़ित हो, आरोपी हो, पुलिसवाले हों, नेता हो या फिर आम आदमी। कोई भी पत्रकारों की फजीहत करने से पीछे नहीं हटता। लग रहा है मानो लोकतंत्र का चौथा खंबा धराशाही होने वाला है। लेकिन ये स्थिति आई ही क्यों ... इसके लिए जिम्मेदार कौन ? अपनी इस खराब स्थिति के लिए तो सबसे ज्यादा जिम्मेदार पत्रकार ही है।
मीडिया में ऐसे पत्रकारों की भी जमात है जो पुलिस अधिकारियों के पैर छूते है...जब तक प्रेस-कॉन्फ्रेंस के लिए पुलिस अधिकारी अपनी कुर्सी पर बैठ ना जाए तब तक बैठते तक नहीं है, स्टैंडिग पोजीशन में ऐसे खड़े रहते हैं जैसे कि पुलिस अधिकारी के मातहत हों। कई पत्रकार (इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार) तो पुलिसवालों को ‘भैया’ या ‘दीदी’ शब्दों से भी नवाजने से नहीं चूकते। कुछ रिपोर्टर तो अपराधियों और पुलिसवालों के बीच मिडिएटर तक बनने से नहीं हिचकते। आप को लग रहा हो कि ये सब हरकतें दूर-दराज के शहरों में स्ट्रिंगर्स करते होंगे। वहां तो पुलिसवालों की जीहुजूरी तो जमकर चलती है—अगर उनकी जीहुजूरी नहीं करेंगे तो ‘खबरें कैसे बनाएंगे’। लेकिन, जरा दम साध कर बैठ जाईये, ये सबकुछ करते हैं राजधानी दिल्ली के रिपोर्टर्स—जहां पर सभी बड़े-बड़े न्यूज चैनल्स और अखबारों के हेड ऑफिस हैं।
अभी हाल ही में एक जाने-माने न्यूज चैनल ने खुलासा किया कि दिल्ली के एक गैंगस्टर की पार्टी में किस तरह कई पत्रकार नाच रहे थे। रिपोर्टर्स के अलावा दिल्ली पुलिस के भी कई बड़े अधिकारी मौजूद थे वहां । गैंगस्टर के खिलाफ दिल्ली के तमाम थानों में हत्या, हत्या की कोशिश, जमीन हड़पने के 100 से भी ज्यादा मामले दर्ज हैं। इतना ही नहीं कुछ रिपोर्टर्स पर गैंगस्टर को फरार करने में मदद करने का भी आरोप लगा। इसी के चलते कुछ पत्रकारों से दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने पूछताछ भी की।
एक नामी गैंगस्टर के साथ रिपोर्टर का नाचना कोई पहला ऐसा मामला नहीं हैं। इससे पहले भी करीब डेढ़ साल पहले मेरठ के एक बहुचर्चित ट्रिपल मर्डर केस में भी पत्रकारों पर आरोपी की तरफ से लाखों रूपए लेने का आरोप लगा था। हत्या के आरोपी को शरण दी गई थी कुछ रिपोर्टर्स द्वारा। हत्या का आरोपी मेरठ के एक नेता के परिवार से था। पहले तो कई दिन तक रिपोर्टर की मदद की वजह से पुलिसवाले आरोपी को नहीं पकड़ पाए...लेकिन मामला जब सियासी गलियारों तक पंहुचा तो दबाव के चलते उसे पकड़ा गया। लेकिन बताते हैं कि जबतक आरोपी को कोर्ट में नहीं पेश किया गया तबतक रिपोर्टर की गाड़ी साथ साथ चलती रही...टीवी रिपोर्टर की गाड़ी पीछा इसलिए कर रही थी कि कहीं पुलिस आरोपी का एनकाउंटर ना कर दे। जिन रिपोर्टर्स का नाम घूस लेने में आया वो देश के नामचीन चैनल्स में काम करते हैं।
कुछ ‘भुख्खड़’ किस्म के रिपोर्टर भी होते हैं जिनकों देखकर ऐसा लगता है, जैसे पुलिस के ही दाने-पानी पर जीते हों। कुछ तो पुलिसवालों की ऐसी चापलूसी में जुटे रहते हैं कि किसी पार्टी में पुलिसवालों की बीवी तक को खाना परोस परोस कर देते नजर आते हैं। कुछ ब्लैक-लिस्टेड रिपोर्टर भी हैं जो आम आदमियों के साथ साथ पुलिसवालों को भी ब्लैकमेल करने में कामयाब हो जाते हैं। कुछ रिपोर्टर त्यौहार या फिर नए साल पर पुलिसवालों के लिए फूलों का गुलदस्ता भी लेकर जाते हैं। क्या ये सब हरकतें आईपीएस अफसरों को समझ में नहीं आती होंगी। वो सब अच्छे से समझते हैं तभी तो टीवी और अखबार के पत्रकारों को कुछ समझते नहीं हैं। तभी तो एक बाइट के लिए रिपोर्टर को अपनी उंगली पर नचाते रहते हैं। कुछ पत्रकारों के चलते पत्रकारिता की पूरी कौम बदनाम होती है। कहते हैं ना एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है।
कुछ रिपोर्टर्स तो ऐसे होते हैं, जो अधिकारियों को पहले ही बता देते हैं कि फलां रिपोर्टस उनके खिलाफ क्या छापने (या दिखाने)वाले हैं। सर, आपके एंटी स्टोरी जा रही है, संभल कर रहना! ऐसी बातों से वैसे तो एक अच्छे रिपोर्टर को खास फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन हां, अधिकारी अपने खिलाफ छप रही स्टोरी को लेकर सजग हो जाता है और तैयारी कर लेता है कि रिपोर्टर को क्या बाईट (या वर्जन) देना ठीक रहेगा, या रिपोर्टर से कन्नी काटने में ही बेहतरी है। कुछ रिपोर्टर ऐसे भी होते हैं, जो अधिकारियों को मना कर देते हैं कि फलां रिपोर्टर को ‘एंटरटेन’ ही मत कीजिएगा।
चुनाव के दौरान भी स्ट्रिंगर्स से लेकर संपादक और मालिक पर पैसे लेकर खबर चलाने के आरोप लगते रहें हैं। कुछ न्यूज चैनल्स तो राजनीतिक दलों की कवरेज का रेट लिस्ट भी तैयार करवाते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती है। जो रिपोर्टर जितने राजनीतिक दलों के प्रचार लेकर आता उसे एक नियत कमीशन दिया जाता था। कुछ चालू किस्म के रिपोर्टर भी होते हैं जिन्होंने कमीशन से तो पैसे बनाए ही... राजनीतिक पार्टियों से भी तमाम तरह के फेवर ले लिए.... तमाम तरह के फेवर से मेरा मतलब समझ रहे हैं ना.... फ्लैट, गाड़ी इत्यादि-इत्यादि। क्या ये सब चैनलों के संपादक या मालिकों को पता नहीं होगा। अरे जनाब, चैनल में कौन किसके उठता-बैठता है, कहां किसके साथ जाता है ये सबतक अगर संपादक को पता होता है तो ये सब पता करना बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन उन

भ्रष्ट पत्रकारों के नाम पर संपादकों का चुप्पी साधना.... भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देना है तो और क्या है? शायद चुप्पी इसलिए साध कर रखते हैं क्योंकि कहीं ना कहीं वो पत्रकार अपने बॉस के किसी राज का राजदार जरूर होगा। यही हाल अखबारों का भी है

भ्रष्ट पत्रकारों के नाम पर संपादकों का चुप्पी साधना.... भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देना है तो और क्या है? शायद चुप्पी इसलिए साध कर रखते हैं क्योंकि कहीं ना कहीं वो पत्रकार अपने बॉस के किसी राज का राजदार जरूर होगा। यही हाल अखबारों का भी है... वहां पर पैसे लेकर खबरे छापी जाती हैं। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता अब एक व्यापार बन गया है।
कहने को तो पत्रकारिता का काम ईमानदारी, सच्चाई और पारदर्शिता से किया जाना चाहिए। लेकिन अगर चौकीदार ही चोरी करने लगे तो क्या होगा? अंजाम आपके सामने है अब रिपोर्टर कुटते पिटते रहते हैं। पत्रकारों के लिए लोग दलाल जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कल तक नेताओं और सफेदपोश लोगों का स्टिंग करने वाले रिपोर्टर का ही स्टिंग, आम लोग कर देते हैं। आमलोग भी ऐसे पत्रकारों के खिलाफ एकजुट और जागरूक हो गए है... ब्लैकमेल करने वाले पत्रकारों को आसानी से दबोच लेते है। लेकिन वही दिक्कत फिर से है कि अगर पत्रकार कोई नामचीन है तो बच निकलता है... लेकिन अगर छोटा मोटा है तो भाया जमकर धुलाई होती है। अफसरों द्वारा की गई रिश्वतखोरी का स्टिंग अगर न्यूज चैनल पर चल सकता है तो खुद के रिपोर्टर का स्टिंग क्यों नहीं चल सकता। प्रबंधन उन्हें क्यों नहीं एक्सपोज करना चाहता। क्यों चुपचाप उसे चैनल से निकाल दिया जाता है या फिर पूरा मामला ही गुपचुप तरीके से खत्म कर दिया है। यकीन करिए अगर चैनल पर खुद के ही रिपोर्टर के गलत काम को दिखाया जाए तो आम लोगों को चैनल के प्रति विश्वसनीयता बढ़ेगी। क्यों इस तरह का उदाहरण नहीं बनाता है मीडिया। पत्रकारिता को अपने लिए इस्तेमाल करने वाले हथियार की ईमेज क्यों नहीं धोई जा सकती। अगर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया संपत्ति का ब्यौरा दे सकते हैं तो रिपोर्टर, संपादक और चैनल के मालिको के संपत्ति का ब्यौरा क्यों ना लिया जाए।
दरअसल, अभी भी रिपोर्टर्स को ही ‘पत्रकार’ माना जाता है। अखबारी दिनों में भी रिपोर्टर ही पत्रकार कहलाता था। डेस्क पर काम करने वाले कर्मचारियों को पत्रकार कम समझा जाता था। टी.वी और न्यूज चैनल्स आने के बाद भी स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही है।
लेकिन टी.वी के आने के बाद से ‘इमेच्योर’ यानि नौसीखियों के रिपोर्टर बनने की तादाद में बड़ी तेजी से आई। ऐसे रिपोर्टर अक्सर ऐसा कहते हुए सुने जा सकते हैं—'आज की दिहाड़ी खत्म हुई', 'एक बाइट, दो वीओ की स्टोरी है', 'आईपीएल चल रहा है अब कुछ नहीं चलेगा', 'सर (नेता या अधिकारी को संबोधित करते हुए) आपकी बाइट के बिना स्टोरी ड्राप हो जाएगी', 'सर आपकी वजह से हमारा दाना-पानी चल रहा है।'
ऐसे में जरुरत है कि पत्रकार, खासतौर से रिपोर्टर (क्योंकि मीडिया का फेस अभी भी वही हैं) अपने आपको परिपक्व बनाएं। पुलिसवालों के कदमों में गिरने की जरूरत नहीं है बल्कि उनकी काली करतूतों को सामने लाने की जरूरत है। अरे ललित मोदी टीवी पर नहीं आना चाहते तो ना आएं... उनकी एक बाइट के लिए लड़ाई झगड़ा करने की क्या जरूरत है। हर कोई पत्रकारों से बोलने और ना बोलने के लिए आजाद है .. ललित मोदी के बारे में तो सब कुछ पता है... कलम में ताकत होती है... बिना उनके वर्जन के छापो। आखिर ललित मोदी के खिलाफ अखबारों और टीवी में पहले क्यों नहीं कुछ छपा... जबकि सबको पता है कि ये एक पूर्व महिला मुख्यमंत्री का सबसे खास आदमी है और तमाम जमीन हथियाने के मामले जयपुर कोर्ट में लंबित है। करीब दो साल पहले, मोदी साहब के खिलाफ दिल्ली की एक अदालत ने जमानती वारंट तक जारी कर दिए थे—मामला धोखाधड़ी से जुड़ा था। पहले तो किसी भी टीवी और अखबार वाले ने ये दिखाने की हिम्मत नहीं दिखाई। सभी जानते है कि आईपीएल मैच में जमकर सट्टेबाजी होती है... तो पहले क्यों नहीं इस मामले को लेकर ललित मोदी को घेरा गया।

14 comments:

  1. आँखें खोलने वाला आलेख लिखा है.....बधाई।

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  2. आपने बिलकुल सही लिखा है !

    आज कल यह सब पैसे के लिए ही हो रहा है ! सब कुछ जानकार अनजान बने रहते हैं ! एक दिन आएगा जब लोगों का विश्वास इस मीडिया से उठ जायेगा
    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

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  3. "कुछ ‘भुख्खड़’ किस्म के रिपोर्टर भी होते हैं जिनकों देखकर ऐसा लगता है, जैसे पुलिस के ही दाने-पानी पर जीते हों।"

    बड़ी इमानदारी से लिखा गया लेख!संजय जी से भी सहमत!

    कुंवर जी,

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  4. सच को उजागर करती और आँखें खोलती .... बहुत ही नायाब और अच्छी पोस्ट....

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  5. har prakar ke patrakaar ki jaankari di...shukriya...par sawaal ye hai ki inme imaandaar karmath wala prakar kab aayega...

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  6. नलिनी ...ji आप ने १०० प्रतिशत सही बात लिखी है ....कुछ लोगो की वजह से ये हालत है पत्रकारिता की ...और हाँ आज के समय में पत्रकारिता व्यवसाय ही बन गया है ....लोग कुछ भी करने को तैयार है ..बस पैसा मिले ...आपके पास तो बहुत ज्यादा अनुभव है ..फिर भी अभी तक जो मैंने भी देखा है वह भी बहुत ही दुखी करने वाला है ...एक पत्रकार के लिए चापलूसी , जी हुजूरी , हाँ सर जैसे स्लोगन आने जरुरी है ...आपका वही कहिये जो बॉस को सही लगे .......आप का लेख पसंद आया ...कुछ और भी ऐसे ही मुद्दों पर लिखियेगा ..सुभेछक

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  7. दिलीप जी,जरूर,अगली बार मैं ईमानदार और कर्मठ पत्रकारों पर लिखूंगी। आज भी ऐसे बहुत सारे पत्रकार हैं, जो एक मिशन के साथ और लगन से काम कर रहे हैं। धन्यवाद।

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  8. स‌च को स‌ामने रखती और अस‌लियत को उजागर करती। हर बार की तरह ही एक बेहतरीन पोस्ट। बधाई। अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा।

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  9. एक पागल था
    जब नंगे घूमता था
    जानता था कि नंगा हूँ
    शर्म से गढ़ा जाता था!

    जब कपड़े पहनता था
    सभी को आइना दिखाता था
    बेशर्मी से हंसता था!

    आपने जब भ्रस्ट पत्रकारों की बात की
    उसकी याद आ गई।

    ..आइना दिखाती उम्दा पोस्ट के लिए आभार।

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  10. आपसे सहमत हूं मैं,शत-प्रतिशत।मगर इसके लिये क्या सिर्फ़ पत्रकार दोषी है?उसे भी तो नौकरी बज़ाना और बचाना पड़ता है?एक मुख्यमंत्री तो बहुत दूर की बात सरकारी जनसम्पर्क अधिकारी संपादकों को उंगली पर नचाता है।संपादकीय टीम पर मैनेजमेंट हावी है और फ़िर जब अख़बार का मालिक पावर प्लांट डाले,कोल माईन्स ले और राईस मिल चलाये तो पत्रकार कैसे निकलेंगे?समय बदला है और निश्चित ही हमारी बिरादरी के कुछ लोग भटके हैं मगर मैं समझता हूं,हो सकता है वे कम हों,मगर अच्छे लोग भी है।अच्छा लगा आपको पढकर, पत्रकारों की बेबसी पर आपकी बेबाकी को सलाम।

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  11. इस लेख का निहितार्थ क्या है नलिनी जी...आखिर आप जो लिख रही हैं उसमे नया क्या है? आज इस बात को कौन नहीं जानता है कि पत्रकार, पुलिस और अपराधी सब आपस में भाई भाई हो गएँ हैं....आप अपने अन्दर देखिये आप ने कितनी बार इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाई...कितनी बार अपने हेड को ये एहसास कराया कि आप जो कर रहें हैं वो धंधा है पत्रकारिता नहीं...अगर युवा पत्रकार इस बारे में कोई कदम नहीं उठाएंगे तो कुछ बदलेगा ऐसा नहीं लगता ......

    www.agnivaarta.blogspot.com

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  12. दूसरों को रोशनी दिखाने वालों के अंदर कितना अंधेरा है...ये इसी बात का सुबूत है...एक दम सटीक उदाहरण...हमारा पांचवा सतम्भ कितना खोखला हो चुका है...ये उसी की बानगी है...anyways well said...n keep it up dear

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  13. इमानदारी से लिखा गया लेख :)

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  14. ये हालत तो हर जगह है.. कठिन है उनकी प्रवृत्ति में तनिक भी सुधार लाना.... फिर भी यदि चाहे तो कोई स्वयं अपनी अलग पहचान बना सकता है, अपने विवेक से... काफी अच्छा लगा आपका लेख.. जैसे मेरे मन की बात पढ़ रहा हूँ... आखिर क्या किया जा सकता है... लोकतंत्र के तीन स्तंभ ही अपनी मर्यादाओं को कायम नहीं रख पा रहें है तो चौथा अघोषित स्तंभ कैसा दम मार सकेगा ...

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