Wednesday, November 25, 2009

सलाम मुंबई !

...नरीमन हाउस पर लगातार फायरिंग, जवाबी फायरिंग और धमाके एक बार फिर सुबह होने के साथ साथ तेज हो चुके थे। 27 नवम्बर 2008 की शाम के करीब 4 बजे तक ये सिलसिला चलता रहा। मैं सबकुछ साफ साफ देख भी पा रही थी। हमारे एनएसजी कमांडो की दिलेरी और बहादुरी। सेना और मुंबई पुलिस वायरलेस पर अपने सीनियर्स को नरीमन हाउस में चल रही जंग का बयान कर रहे थे। दबी आवाज में वो ये भी बता रहे थे कि आतंकवादियों का खात्मा कभी भी किया जा सकता है। दबी आवाज इसलिए ताकि मीडिया तक उनकी बात ना पंहुच पाए। तभी एकाएक तेज फायरिंग शुरू हो गई और लगातार कई धमाके भी हुए। मैने भी पानी की टंकी की आड़ से देखने की कोशिश की तो ये क्या बिलकुल किसी हॉलीवुड मूवी की तरह नरीमन हाउस का एक हिस्सा उड़ता दिखाई दिया। साथ ही घर के अंदर आतंकवादियों और कमांडो को फायरिंग करते देखा जा सकता था। ये सिलसिला ज्यादा देर तक नहीं चला क्योंकि आतंकवादियों पर हमारे जवानों ने काबू पा लिया था। लेकिन इस खबर की पुष्टि करना जल्दबाजी थी। रात करीब साढ़े 8 बजे भारतमाता के जयकारों के बीच मीडिया को बताया गया कि नरीमन हाउस के आतंकवादियों को ढेर कर दिया गया है। लेकिन अफसोस ये था कि बंधक लोगों की नहीं बचाया जा सका। ठीक इसी समय ट्राइडेंट पर रिपोर्टिंग कर रहे साथी ने मेरा हालचाल पूछने के लिए फोन किया। उसने बताया कि ट्राइडेंट पर फंसे सारे बंधको को छुड़ा लिया गया है और बस वहां का ऑपरेशन खत्म ही होने वाला है। मुंबई हमले की कवरेज करना मानों हमारे लिए भी किसी जंग से कम नहीं था। आपरेशन खत्म हुआ तो मुंबई ऑफिस से फोन आया, “आपका खाना और पानी ताज होटल पर खड़ी ओबी में रखवा दिया है। आकर खा लीजिए।” तुरंत एक दूसरा रिपोर्टर मेरी जगह कवरेज के लिए आ गया और मैं ताज होटल के लिए निकल पड़ी। वहां मुंबई ब्यूरो के कई रिपोर्टर और सीनियर मौजूद थे। हम सबने मिलकर दिनभर की सारी बातें की। अपने अपने अनुभव शेयर किए। चूंकि हम टीवी नहीं देख पा रहे थे लिहाजा आपस में बातें कर रहे थे कि पता नहीं फलां वॉकथ्रू और टिकटैक चला या नहीं। (रिपोर्टर को हमेशा इस बात का मलाल रहता है कि आउटपुट ने उसकी मेहनत को चलाया भी या नही)। अब ताज होटल पर भी शांति लग रही थी। शायद तूफान से पहले की खामोशी.... हम खाना खा ही रहे थे कि लगातार कई धमाके हुए। ये बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि हमारे कमांडो कर रहे हैं या आतंकवादी। जल्दी जल्दी सबने खाना खाया और फिर अपनी ड्यूटी पर लग गए। रात के साढ़े 10 बज चुके थे। अब मैं भी ताज होटल पर ही कवरेज के लिए रूक गई। फिर वही ब्लैकआउट और कैमरे के पीछे बैठे रिपोर्टर। रात में 11 बजे से लेकर तकरीबन 3 बजे तक कोई भी धमाके की आवाज नहीं आई.... ना ही आतंकवादियों की तरफ से हैंडग्रेनेड फेंके गए। मेरे साथी कैमरामैन ने कैमरे को जूम इन करके उस जगह पर छोड़ दिया जहां पर आंतकवादियों के छिपे होने की आशंका थी। ताज के उसी कमरे की लाइट जल रही थी। अगर ध्यान से देखने पर खिड़की पर लगे पर्दे को हटाते हुए आतंकवादी के हाथ को देखा जा सकता था। एनएसजी कमांडो लगातार अंधेरे का फायदा उठाते हुए होटल के अंदर घुस रहे थे। कुछ मूवमेंट नहीं थी, ना ही कोई गोली की आवाज सुनाई दे रही थी। दो दिन सोई नहीं थी लिहाजा वहीं बैठे बैठे मेरी झपकी लग गई। लेकिन एक बार फिर गोलियों की आवाज और धमाकों से मेरी नींद टूट गई। टाइम देखा तो देर रात साढ़े तीन बज रहे थे। तभी मुंबई पुलिस का एक अफसर मीडिया की तरफ आता दिखाई दिया। उसने शोर मचाते हुए कहा.... “get down, get down”—यानि जमीन पर लेट जाओ। शोर से कुछ समझ में नहीं आया बस हम सब रिपोर्टर और कैमरामैन नीचे झुक गए। धमाके लगातार तेज ही हो रहे थे... ऐसा लग रहा था कि ऑपरेशन अंतिम चरण पर है। तेज धमाको के बीच 29 नवंबर के सूरज ने दस्तक दी। सुबह के करीब 6 बज चुके थे। अभी मैं नींद में ही थी कि फोनो के लिए एक बार फिर ऑफिस से फोन आ गया था। बुलेटिन अभी चल ही रहा था कि कमांडो मूवमेंट बहुत तेज हो चुका था। ताज के उस हिस्से पर आग लगा दी गई थी जहां पर आतंकवादी छिपे हुए थे। अबतक मेरी नींद काफूर हो चुकी थी। खूबसूरती के लिए जाना जाने वाला ताज धू धू करके जल रहा था। सुबह के तकरीबन सवा सात हुए थे तभी ताज के एक खिड़की से आतंकवादी गिरता हुआ दिखाई दिया। हमारे कैमरामैन ने उस गिरते हुए आतंकवादी कि तस्वीर कैद कर ली थी। तुरंत ऑफिस में खबर ब्रेक की कि बिल्डिंग से आतंकवादी गिरा। तुरंत उसके विजुअल लेकर ओबी की तरफ बढ़ी। अबतक एनएसजी और मुंबई पुलिस के बड़े अफसर ताज होटल पर इक्ट्ठा हो चुके थे। फायर ब्रिगेड की गाड़ियां ताज की आग बुझा रही थीं। अबतक सब समझ चुके थे कि ताज के आतंकी ढेर कर दिए गए हैं। फिर क्या था.... मीडिया ने भी पुलिसिया घेरा तोड़ा, रस्सी फांदी और सीधे एनएसजी के चीफ जे के दत्ता के पास बाइट लेने पंहुच गए। मैनें भी ऑपरेशन खत्म होने का वॉकथ्रू किया। तभी एक कमांडो ने पूछा मैम आपके फोन में ब्लूटूथ है। मैने कहा क्यो? मैम आतंकवादी की तस्वीर है मेरे पास। अंदर की भी कुछ फोटो है। बस फिर क्या था। बैठे बैठे ही मुझे ‘एक्सक्लूसिव’ तस्वीरें मिल गई थी। मैंने फटाफट वो पिक्चर्स अपने फोन में ली और एक बार फिर ओबी में फोटो भेजने के लिए चल दी। इस बीच मेरे घरवालों के भी लगातार फोन आ रहे थे, अपनी ख्याल रखने के और बधाई के भी। ऑपरेशन खत्म हो गया। सुबह के साढ़े 10 बज चुके थे। कमाडों ने ताज होटल पर तिरंगा फहराया। थकान बहुत थी लेकिन कमांडो की खुशी के आगे शायद थकान और नींद का अहसास ही नहीं हो रहा था। मेरा काम अभी भी खत्म नहीं हुआ था। अब बारी थी। ऑपरेशन खत्म होने के बाद की मूवमेंट को कवर करना और ताज होटल के अंदर जाने की कोशिश करना। एफबीआई, यूएस एंबेसी के लोग और रतन टाटा ताज पर पंहुच चुके थे। अब मीडिया भी ताज के पोर्च तक पंहुच चुकी थी। लगातार एबुलंस आती जा रही थी...ताज से एक एक करके शव निकाले जा रहे थे। उनकी शिनाख्त में अफसर लगे हुए थे। कोई भी बंधक नहीं बच सका था सिवाए होटल के एक स्टाफ के। उसको भी इस बात का बिलकुल यकीन नहीं हो पा रहा था कि वो बच गया है। वो स्तब्ध था, वो ना हंस पा रहा था ना ही बोल पा रहा था। जैसे तैसे उसे पुलिसवालों ने संभाला और मीडिया से दूर रखा। हालांकि मैं ताज के अंदर नहीं जा पाई (किसी को इजाजत नहीं थी) लेकिन चकमा देकर मैं होटल के एक रेस्टोरेंट तक जरूर पंहुची। जहां आतंकियों ने तबाही मचाई थी। वहीं से मैं उस जगह को भी देख पा रही थी, जहां से बंधको ने चादर गिरा कर खुद को आतंकियो के कहर से छुड़ाया था। मैनें जल्दी जल्दी एक वॉकथ्रू किया क्योंकि कभी भी वहां पुलिस पंहुच कर मुझे बाहर कर सकती थी। शाम के 8 बज चुके थे। अब हिम्मत जवाब दे गई। मैने बॉस से गेस्टहाउस जाने की इजाजत मांगी। बॉस ने इजाजत दी और मैं तुरंत गेस्ट हाउस के लिए निकल गई। ड्राइवर ने बताया कि स्पॉट से गेस्टहाउस जाने में करीब 2 घंटे लगेंगे।
रास्तेभर मै इन धमाकों के बारे में ही सोचती रही। काम खत्म होने के बाद भी उस खौफ को महसूस कर पा रही थी। साथ ही मन में कई सवाल कौंध रहे थे कि आखिर हमारी पुलिस क्यों नहीं मुकाबला कर पाई दस आतंकवादियों का, क्यों जरुरत पड़ी एनएसजी और सेना तक की? क्यों मैरीन कमांडो को भी कूदना पड़ा महज दस आतंकवादियों के खात्मे के लिए। क्यों हमें करकरे,काम्टे, सालस्कर और, उन्नीकृष्णन जैसे वीरों को खोना पड़ा। क्यों महज दस आंतकवादियों(जिन्होंने जैसी भी कमांडो ट्रैनिंग ली हो) ने पूरे देश को 62 घंटे तक छकाए रखा। क्यों ऐसा लगने लगा कि दस आंतकवादियों ने नहीं बल्कि किसी शक्तिशाली देश ने हमारे मुल्क पर चौतरफा हमला कर दिया है। क्या ये देश के लिए जीत थी या फिर एक शर्मनाक हार?

1 comment:

  1. एक रिपोर्टर के तौर पर अक्सर यह हम सबको पता है कि हर स्टोरी की भी अपनी स्टोरी होती है। कैसे वह स्टोरी आप तक पहुंची या आप उस तक पहुंचे। इसकी कहानी भी बड़ी अजीब, कई दफे रोचक होती है। खबरों की दुनिया में डूबे रहने वालों के लिए एेसी कहानियां खासी रोमांच पैदा करती हैं। मसलन किसी रिपोर्टर से आप कहो कि मुंबई जब दहल रही थी। उस पर जब सबसे बड़ा हमला हुआ था। आप उस पल को रिपोर्ट कर रहे थे। कहानी केवल टीवी कैमरों पर दिखने वाले फुटेजों या अखबारों में छपी दर्जन कॉलमों की स्टोरी के इतर भी होती है। अंत में एक बार जरूर कहूंगा अच्छा लिखती हैं आप ।

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