Tuesday, November 24, 2009

ये है मुंबई मेरी जान


रात के करीब 10 बजे थे। तारीख थी, 26 नवंबर 2008। उस दिन मैं अपनी (क्राइम) स्टोरी एडिट (ऑन एयर होने को तैयार) करवा नोएडा स्थित ऑफिस (न्यूज 24) से घर के लिए निकली ही थी कि चैनल के ही एक एंकर का, फोन आया । उसने कहा नलिनी जी रास्ते में मुझे भी ड्रॉप कर दीजिएगा। जैसे ही हम ऑफिस से निकलने वाले थे तभी स्टार न्यूज और आईबीएन 7 पर ब्रेकिंग हुई। ब्रेकिंग की पट्टी चलते ही मै ये देखने के लिए उत्सुक हुई कि क्या ब्रेकिंग है।... खबर थी... मुंबई के पॉश, कोलाबा में गोलीबारी...दूसरा चैनल ये ब्रेक कर रहा था कि कोलाबा के एक पब में गोलियां चली, दो गुटों के बीच लड़ाई। .... एकाएक मेरे मुंह से निकला.... आज की मेहनत बेकार गई। क्राइम बुलेटिन में जो दिल्ली की स्टोरी जाने वाली थी ड्रॉप ही समझो! अब तो मुंबई के ही रिपोर्टर का फोनो चलेगा। भई पॉश इलाके में जो गोलीबारी हुई है। खैर मैंने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और घर के लिए निकल गई। घर पंहुची। न्यूज चैनल में काम करके न्यूज देखने का मानो चस्का लग जाता है। इसलिए, अगर आप घर में टीवी के सामने बैठे हो या नहीं, पर कोई ना कोई न्यूज चैनल तेज आवाज में चलता ही रहता है। खासकर तब, जब पति- पत्नी दोनों ही न्यूज चैनल में काम कर रहे हो--और दोनों ही क्राइम रिपोर्टर हों। अचानक मेरे कानों में ये खबर सुनाई दी.... मुंबई में आतंकवादी हमले का शक। फिर क्या था.... मैं टीवी के सामने ही बैठ गई। खबर लगातार बड़ी होती जा रही थी। आईबीएन 7 और एनडीटीवी दोनों पर विजुअल भी ब्रेक हो चुके थे। मैं देख ही रही थी तभी एक टैक्सी में धमाके की खबर ब्रेक हो गई। ताज में गोलीबारी की खबर। छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर गोलीबारी की खबर..... सभी चैनल के मुंबई के रिपोर्ट्स के वॉक थ्रू। शायद उन संवाददाताओं को बिलकुल अंदाजा नहीं था कि मुंबई देश के सबसे बड़े आतंकवादी हमले का गवाह बनने जा रहा है। ये घटना तब हुई जब लगभग रिपोर्टर्स अपने घर के लिए रवाना होते है तो कोई रिपोर्टर अपना बैग लेकर ही वॉकथ्रू कर रहा था तो कोई फोनो में ये बोल रहा था कि बस वो अभी स्पॉट पर पंहुचने वाला ही है। मैं खुद को टीवी के सामने से बिलकुल नहीं हटा पा रही थी। देखते देखते साढ़े 12 बज गए। अबतक बिलकुल साफ हो चुका था कि आतंकवादियों ने होटल ताज, ट्राइडेंट और नरीमन हाउस को अपने काबू कर लिया है और सैकड़ो़ लोगों को अपने बंधक बना लिया है। कभी कामा हॉस्पिटल में आतंकवादियों के घुसने की खबर तो कभी पुलिस जिप्सी पर आंतकवादियों के भागने की खबर। मैं मुंबई की तबाही देख रही थी। साथ में खयाल इस बात का भी आ रहा था कि उन परिवारों का क्या हाल होगा जिनके लोग बंधक बने हैं। मुंबई पुलिस की बेचैनी भी साफ नजर आ रही थी। किसी ने भी ये कल्पना नहीं की थी। हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालस्कर के शहीद होने पर एक बात तो बिल्कुल साफ हो चुकी थी कि मुंबई सरकार और पुलिस इस तरह के किसी हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। देश की आर्थिक राजधानी के ये हालत देखते देखते कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला। 27 नवंबर की सुबह हर चैनल के धुरधंर रिपोर्टर कवरेज के हर मोर्चे पर तैयार थे। सब अपनी अपनी तरह से इस बड़े हमले की व्याख्या कर रहे थे। कईयों ने तो कयास ही लगाने शुरू कर दिए कि ये हमला किसने करवाया है। अब सब चैनल पर अजमल आमिर कसाब की भी नीले बैग वाली तस्वीरें देखी जा सकती थी। सुबह 10 बजे मैं ऑफिस पंहुची तो देखा दिल्ली ब्यूरो के सारे साथी रिपोर्टर्स सुकून से बैठे थे और चैनल के सारे बॉस असाइनंमेंट पर इकट्ठा हैं। कई बार उनके चिल्लाने की भी आवाजें आ रही थी..... कि फलां चैनल पर ये विजुअल चल रहा है अपने रिपोर्टर ने वहां से वॉकथ्रू किया या नहीं? तो कभी टाइम्स नाउ के विजुअल अच्छे है सौजन्य के साथ काट लो। दिल्ली ब्यूरो के रिपोर्टर्स की बल्ले बल्ले थी क्योंकि अब जबतक आतंकवादी मारे नहीं जाते तबतक तो दिल्ली का कुछ टीवी पर चलेगा ही नहीं। कुछ रिपोर्टर्स जो कि शायद कभी न्यूज पेपर नहीं पढ़ते होंगे अखबार पढ़ते दिखे। मैने भी चुटकी लेते हुए कहा कि आज बॉस व्यस्त है हैडलाइन नहीं पूछेंगे। लेकिन जब गौर से पेपर की ओर देखा तो जनाब मूवी के टाइमिंग्स देख रहे थे। चूंकि मैं क्राइम टीम से जुड़ी हुई थी लिहाजा क्राइम टीम के लोगों को कुछ काम में लगा दिया गया। मुंबई हमले को लेकर मैं भी बहुत एक्साइटेड थी या यूं कहे कि मेरे अंदर का रिपोर्टर बोल रहा था कि, ‘मुझे भी वहां होना चाहिए’। अभी तक तो सिर्फ जम्मू कश्मीर में ऐसे आतंकवादियों को बंधक बनाते सुना था लेकिन मुंबई। कभी सोचा भी ना था। मैं मन ही मन ये सोच रही थी कि काश मैं भी ऐसी बड़ी कवरेज के लिए जाऊं। हालांकि पहले भी मैं कई कवरेज के लिए बाहर गई थी लेकिन आतंकवादियों को लाइव कवर करना.... ये एक रिपोर्टर का ‘लालच’ था। मैं मन ही मन सोच रही थी, कि भगवान ने मेरी सुन ली.... असाइन्मेंट से कॉल आया और बताया गया कि मेरी मुंबई की फ्लाइट है। दिल्ली से मुंबई हमले की कवरेज के लिए मेरे अलावा एक और रिपोर्टर जा रहा था। 27 नवंबर को मैं मुंबई पहुंच गई। पहले ताज होटल और फिर नरीमन हाउस। नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया का जमावड़ा था। गोलियों और धमाकों की आवाजें जो अभी तक टीवी पर सुन रही थी अब मैं खुद सुन रही थी। अब मैं मुंबई की तबाही अपनी आंखों से देख पा रही थी। लोगों की वो दहशत और खौफ महसूस कर पा रही थी। स्पॉट पर पंहुचते ही एक ऐसा परिवार मिल गया जिसके सदस्य ताज में फंसे थे। मैने जैसे ही माइक उनके आगे बढ़ाया उनके रूंदन और बेबसी ने मेरी भी आंखो में पानी भर दिया। एक सदस्य तो बिलकुल मुझसे ही अपने बंधक सदस्य को छुड़ाने की प्रार्थना करने लगा। अभी तक मैं शायद प्रोफेशनल थी लेकिन अब मुझे उन परिवार की पीड़ा का अहसास होने लगा था। रात के 11 बज चुके थे। मैं ताज होटल पर ही डटी हुई थी। लगातार दिल्ली ऑफिस से फोन आ रहे थे कि ताज होटल में ऑपरेशन खत्म हो चुका है। क्योंकि किसी दूसरे चैनल ने ऑपरेशन खत्म होने की बात चला दी थी। लेकिन ये हकीकत नहीं थी। अभी भी आतंकवादियों की तरफ से लगातार गोलीबारी चल रही थी। ऑफिस को यकीन दिलाने के लिए मैने एक छोटा सा वॉकथ्रू (रिपोर्टर का मौके से हाले-बयान) कर दिया। मुंबई पुलिस की तरफ से मीडिय़ा को रोकने के लिए एक रस्सी लगा दी गई थी और हमसे कैमरा लाइट ना जलाने की अपील की गई। मुंबई पुलिस ब्लैकआउट कराना चाहती थी ताकि आतंकवादी ये पता ना लगा पाए कि बाहर क्या हो रहा है—और एनएसजी कमांडो होटल के अंदर जा सके। सभी ने पुलिस का सहयोग किया। जब एनएसजी कमांडो ने अपनी पोजीशन ली तो ऐसा लगा मानों ऑपरेशन बस कुछ देर का बाकी बचा है। मेरे साथ दो कैमरामैन थे तो एक को ताज पर छोड़कर मैं नरीमन हाउस चली गई। ताज से नरीमन हाउस की दूरी लगभग 15 मिनट में तय की जा सकती थी। नरीमन हाउस में भी वही मंजर। आसपास बिल्कुल छावनी में तब्दील था। देर रात 3 बज रहे थे... अब लगातार 3 ट्रक में भरकर सेना के लोग भी पंहुच गए थे। सब की जुबान पर बस भारत माता की जयकार थी। अचानक एक सुर में ये आवाज सुनकर मैं भी रोमांचिंत हो रही थी। जयकार लगाना एक रणनीति का हिस्सा था ताकि नरीमन हाउस में बैठे आतंकियों के हौसले पस्त पड़ जाए। सेना के सभी लोगों ने पूरे इलाके की गलियों कों घेर लिया और नरीमन हाउस के आसपास की बिल्डिंग में भी फंसे लोगों को निकालना शुरू कर दिया। आतंकवादियों की ओर से चल रही गोलियों की आवाज तो रूक रूक कर आ ही रही थी। तभी एक एंबुलेंस आती दिखाई दी.... मुझे ऐसा लगा कि शायद आतंकवादी मारा गया। लेकिन पता चला कि नरीमन हाउस के पास की बिल्डिंग के एक बुजुर्ग ने डर की वजह से छलांग लगा कर खुदकुशी कर ली। अब सुबह के 6 बज चुके थे और तारीख हो चुकी थी 28 नवंबर। मैं नरीमन हाउस पर ही थी। सुबह के बुलेटिन में मैं फोनो दे रही थी तभी नरीमन बिल्डिंग के ऊपर हेलीकॉप्टर मंडराते नजर आए। मैनें एक आंटी जिनका घर नरीमन हाउस से लगभग 50 मीटर की दूरी पर था, उनसे उनकी घर की बालकनी में जाने की इजाजत मांगी। आंटी मराठी थी और उन्हें हिंदी बिलकुल नहीं आती थी। किसी तरह मैं उन्हे अपनी बात समझाने में कामयाब हुई और उन्होंने इजाजत दे दी। बालकनी से अब सबकुछ साफ नजर आ रहा था। लेकिन एहतियातन हमने आंटी की पानी की टंकी से आड़ ले रखी थी। अब मैं नरीमन हाउस के ऊपर मंडरा रहे हैलीकॉप्टर को साफ देख पा रही थी। मेरे कैमरामैन भी जान जोखिम में डालकर वो शूट कर रहे थे। अभीतक ये साफ नहीं हो पाया था कि आखिर ये हैलिकॉप्टर क्या कर रहा है। तभी एक रस्सी फेंकी गई और उससे उतरता काले कपड़ों में एक कमांडो दिखाई दिया। मैने तुरंत दिल्ली ऑफिस में फोन करके ये नरीमन हाउस में एनएसजी कंमाडो उतरे खबर ब्रेक की। एक के बाद एक कई एनएसजी कमांडो हैलीकॉप्टर से उतरते गए। नरीमन बिल्डिग की पूरी छत पर अब एनएसजी की कंट्रोल हो गया था। इस खबर को लेकर बाद में सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से चिंता जाहिर की गई। दरअसल, हमारे लिए वहां होने वाली एक-एक मूवमेंट ब्रैकिंग खबर थी—चैनल के लिए भी। लेकिन शायद सीमा पार बैठे आतंकियों के आका टी.वी पर ब्रैकिंग न्यूज देख-देख कर अपनी रणनीति तैयार कर रहे थे। वे सैटेलाइट फोन के जरिए, होटल (और नरीमन हाउस) में मौजूद आतंकवादियों को दिशा-निर्देश दे रहे थे। इस हमले के बाद इस तरह के हमले के दौरान मीडिया पर लगाम कसने के कवायद शुरु हो गई है। ऐसे में एक सवाल का सामना पत्रकार को करना पड़ता है। हमें पढ़ाया जाता है कि पत्रकार स्वतंत्र होता है। वो ना तो सरकार का माऊथपीस होता है और ना ही आंतकियों का खैरख्वाह। हम तो अपना काम कर रहे हैं, अपना कर्म कर रहे हैं। रिपोर्टर स्पॉट से रिपोर्टिंग कर रहा है। महाभारत के संजय की तरह मुंबई हमले का बयान पूरी दुनिया को दे रहे हैं। फिर उसमें कौरवों की मात हो या फिर अभिमन्यु मौत के काल में समाए, क्या फर्क पड़ता है? हमें हार और जीत दोनों ही बयां करनी हैं। अगर संजय ने अभिमन्यु की मौत का सच, धृतराष्ट्र से छिपाया होता तो, क्या अपने नालायक बेटों की करतूत का उसे कभी पता चला पाता। अब सवाल उठता है कि क्या एक देश की सुरक्षा से ऊपर होता है पत्रकार? ये एक बहस का मुद्दा जरुर है। लेकिन इस हमले के बाद ये जरूर हुआ है कि कुछ न्यूज चैनल और पत्रकारों ने खुद पर ‘पाबंदी’ लगानी शुरु कर दी है। लेकिन क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां ऐसी रणनीति से आंतकियों को हमला करे कि न्यूज चैनल (अखबार भी) पर चलने वाली खबरों से भी आंतकवादियों को कोई मदद ना मिल सके। रिपोर्टर को सिर्फ अपनी सुरक्षा (और खुफिया) एजेंसिया का गुणगान हीं नहीं करते रहना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो प्रेस (यानि मीडिया) के ‘वॉचडॉग’ वाला रोल ही खत्म हो जाएगा। (....to be continued)

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